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________________ १४० | उपासक आनन्द धन्ना बड़े तेजस्वी और साहसी थे। उन्होंने सुभद्रा की बात सुनी तो कहा—क्या शालिभद्र दीक्षा लेगा । वह एक स्त्री का रोज त्याग कर रहा है। इस तरह प्रत्येक दिन एक-एक स्त्री को छोड़ने वाला कहीं दीक्षा ले सकता है। यह वैराग्य लाया जा रहा है, या वैराग्य का नाटक खेला जा रहा है। दीक्षा ले रहा है, या तमाशा कर रहा है। भगवान् कहते हैं— मा पsिबंध करेह | और, शालिभद्र कल और परसों कर रहा है। कब बत्तीस नारियों का परित्याग करेगा, और कब दीक्षा लेगा। उसे बत्तीस दिन की जिन्दगी की गारन्टी किसने लिख दी है। क्या वह जानता है, कि वह दिन देख सकेगा। यह त्याग और वैराग्य का मार्ग नहीं है। त्याग और वैराग्य का मार्ग है मा पडिबंधं करेह | धन्ना की बात में सच्चाई तो थी, किन्तु सुभद्रा को उससे बड़ी चोट पहुँची। उसका दिल पहले ही दुखी था, धन्ना की बात से वह और अधिक दुखी हो गई। उसने ताने के स्वर में कहा-' पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।' फिलासफी छाँट देना सहज है, करना कठिन होता है। त्याग करने वाले ही जानते हैं, कि कैसे त्याग किया जाता है। मेरा भाई एक-एक नारी को तो छोड़ रहा है; किन्तु एकदम छोड़ने का उपदेश देने वाले एक को भी नहीं छोड़ रहे हैं। वे घर में बैठे हैं। प्रियतम ! शालिभद्र का त्याग साधारण नहीं है। उसकी अवज्ञा न कीजिए। सुभद्रा का ताना सुनते ही धन्ना एकदम खड़े हो गए। जिस ग्रन्थकार ने धन्ना जी का चरित्र लिखा है, उसने कलम को मात कर दिया है। धन्ना जी जैसे थे, वैसे ही चल पड़े। धोती थी, तो बदन पर धोती ही रही; उन्होंने अँगरखा पहन लेने की भी चिन्ता नहीं की । घर के दरवाजे खुले हैं, तो खुले ही पड़े हैं। जो चीज जहाँ पड़ी है वहीं पड़ी है। किससे क्या लेन-देन है, कोई वास्ता नहीं है। दुकान में क्या हो रहा है, कोई परवाह नहीं है। उन्होंने एक भी चीज इधर से उधर नहीं रखी। बाहर जाने योग्य वेष की भी चिन्ता नहीं की । शरीर पर स्नान का पानी लगा है, तो उसे पौंछने का भी ख्याल नहीं किया। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा- आज से नहीं, अभी से तुम मेरी बहिन, और मैं तुम्हारा भाई । वह धन्ना, जिसने संसार की करारी से करारी चोटें सहन कीं, और जिसने कितनी ही बार सोने के महल बनाए और बिगाडे । ऐसे ही उस धन्ना सेठ के मन में इस एक वाक्य ने ही जागृति कर दी, अपूर्व प्रेरणा भर दी । 'कहना सरल और करना कठिन है' इस वाक्य को उलट देने के लिए वह उसी क्षण घर से बाहर निकल गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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