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________________ [१२४ । उयासक आनन्द क्या करते हो? पढ़ता हूँ। अच्छा, कुछ नियम लिया है ? नहीं, महाराज! नियम तो कुछ नहीं लिया है, पर अच्छी तरह रहता हूँ। सन्त हरी के त्याग पर अड़ गए, मगर लालाजी ने साफ कह दिया-नहीं, मैं हरी का त्याग नहीं करूँगा। सन्त को क्या पता था, कि इनकी कितनी तैयारी है। उन्हें क्या मालूम था, कि यह शराब पीते हैं, या मांस खाते हैं ? उनकी भरी-पुरी जवानी है और पैसे वाली जवानी है। पैसे वाले खुले हाथ होते हैं, और जब परिवार से अलग रहते हैं, तो बहुत बार जीवन को बर्वाद कर लेते हैं। मेरा आशय यह नहीं कि लाजपतराय में ये दुर्गुण थे। मैं यह कहना चाहता हूँ, कि सन्त को उनके वास्तविक जीवन का और उनके विचारों का पता नहीं था। उन्होंने उनकी भूमिका को नहीं समझा था। इसी कारण वे हरी के त्याग पर अड़े रहे। यह इच्छा-योग नहीं था। यह था, एक प्रकार का हट-योग। __ सन्त ने केवल हरी के त्याग का उपदेश ही नहीं दिया, उस पर बल भी दिया। इस संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि जब वे दुबारा आए, तो फिर किसी भी साधु के पास नहीं गए। ___ जब घर वालों ने साधुओं के पास जाने को कहा, तो उन्होंने उत्तर दिया वहाँ जाकर क्या करूँ। वे हमारे जीवन के सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं देते, जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर रोशनी नहीं डालते, और हरी छोड़ने की बातें करते हैं। शाकाहारी हरी कैसे छोड़ सकता है। ___आप इस घटना पर विचार करें तो मालूम होगा, कि जैनधर्म के 'जहासुहं ' मूलमंत्र को ध्यान में न रखने के कारण एक महाशक्ति हमसे दूर जा पड़ी। लाला लाजपतराय के चित्त में उस दिन से जैन-साधुओं के प्रति जो उपेक्षा का भाव जागृत हुआ, वह फिर नहीं मिटा। वे आर्य-समाज की ओर आकृष्ट हो गए। वस्तुत: वे राष्ट्रवादी थे। जिसने मांस-मदिरा का त्याग कर दिया है, और एकेन्द्रिय जीवों को भी जिसका करुणाभाव स्पर्श करने लगा है, उसे हरी का त्याग करने का उपदेश देना अनुचित नहीं है, मगर जो इस भूमिका पर भी अभी नहीं पहुंचा है, जो मांस को दाल-रोटी की तरह और मदिरा को पानी की तरह समझता है, उसे पहले मांस-मदिरा की बुराइयाँ बतानी चाहिए। हाँ, बुराइयाँ बतानी चाहिए, प्रेरणा भी मर्यादाओं में रह कर करनी चाहिए, बलात्कार करना तो साधु का धर्म नहीं है। For Private & Personal Use Only Jain Education International 'www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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