SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणितसार-चतुर्थाध्याय जित्तिहि कितिहि दम्मिहि पंडिय ! मणु एगु वक्खरो होइ।। तस्सद्धेहिं विसोइहि सेरो इको वियाणाहि ॥ २० . गणिमवत्थूण जित्तिहि दम्मेहिं होइ कोडिया इक्का । तावइय विसोवेहिं लब्भइ एगा गणिम वत्थू ॥ २१ ॥ इति अर्घस्य फलम् ॥ अथ मानानिवट्टस्स य विखंभं तिउणं तह छट्ठमंस जुय परिही। सा पाय वित्थरे गुणि जं जायइ तं जि खित्तफलं ॥ २२ -दर्शनं (६) परिधि १९ क्षेत्र फलं २८ इति वृत्तं ॥ वट्टाओ चउरंसं बारस विसुवा हवेइ सविसेसं। चउरंसाओ वटुं तह वट्टड पंचमंसूणं ॥ २३ तिक्कोणयाओ वटै सड्डदुवालस विसोव हुइ खित्तं । वट्टाओ य तिकोणं विसोवगा सत्त अडहिया ॥ २४ ०॥२७ ०१ (०॥१ ॥२॥ ॥२०॥ ॥ इति क्षेत्रमानम् ।। विशेष एषां दर्शनमाह गोलस्स य उदयघणं पउणं पउणं व हवइ पाहाणं । परिहिचउत्थं भायं हयपरिहि नवंसजुयखित्तं ॥ २५ न्यास (६) लब्धं गोलकफलं १२० क्षेत्रफल १००ऽऽ६, घनि २१६ पउर्ण १६२ पुणु पउणं १२० फलं ॥ परिहि ४॥ गुणित १९ जात ९० । अस्य नवांस १० एवं १०० क्षेत्रफलं ॥ घण कविय इक्केणं ढिल्लिय संभूय पाहणं सव्वं । पन्नासमणं जायइ तुलिओ चउवीससय तुल्ले ॥ २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003399
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakkur Feru, Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy