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________________ १०२ श्रध्याय ३ - श्रृंगार-काव्य सिंगार हार भार तू तपादरा उदार है । सुवर्ण जूथिका जुही जुहीं सुडार डार है । बोलें कपोत केकी कुलंग, कोकिला कीर सारौं सुरंग । चातक सु चषि चंडूल चार, खगराज व्वाल खंजन अपार । राधा के साथ कृष्ण का नखसिख भी दिया हुआ है वक्षस्थल दृढ़ता प्रति धारे। मणिक लाल भृगु लता बिहारे ॥8 भुज ध्वज गज सुंडन परमानें । कोमल कर लषि कंजन जानें ॥ अंग अंग छवि वरणिन जाई । कोटिकाम दुति देखि लजाई || राधा के साथ उनकी सखियां, कृष्ण के साथ उनके सखा, बन का सुन्दर स्थान फिर राधा-कृष्ण का मिलन सुखदाई क्यों न होता ! गहवर वन' मोहन लसै तिह मग राधा ग्राइ, जुरी सुदृष्टिहि परसपर वर्षात कहत सिरनाइ । [ यहां भी लेखक का पूज्यभाव कथा के साथ है ] और फिर तो कृष्ण राधा का वही चिरपरिचित प्रेममय झगड़ा - हो तुम कौन गोप की जाई । बिन बूझैं महवन में श्राई ॥ दान - लीला का वर्णन बहुत सुन्दरता के साथ किया गया है और कवि ने लिखा दान केलि गोविंद की बसौ सदा राधा सहित इस लीला का फल भी लिखा है- Jain Education International वरनी वषत बनाइ । मो उर में जदुराइ ॥ बद्रीनाथ दरस के कोने । जो फल सो यामें चित दीने ॥ जो फल जगन्नाथ परसेतें । सो यह हरि लीला दरसे तें ॥ कृष्ण और राधा के प्रेम-युक्त वार्तालाप का एक उदाहरण मोहन सुनौ कहै ब्रजनारी । हमरी बाट कहा प्रवारी ॥ तुम हो दान कौन सो चाहो । सो किनि परगट हमैं लषाहो || " नए दान" की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा १ ' गहवर बन' ब्रज चौरासी कोस में आता है | नयें कहें हम कछु न लजावें । नई नई कहो बात सुनावें ॥ यो सघन बन यह निहारों । नई नई तुमसुनि चितधारो ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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