SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 598
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययनं -४- [नि. १२७३ ] १४३ अहवा दिसिविभागो मूलदारगहणं, सेसदारोवलक्खणं चेयं दट्ट्घं, अचित्तसंजयपारिट्ठावणियं पइ एसो दारविवेओ नायघोत्ति भणियं होइ, 'दुविहदव्वहरणं चे 'तिदुविहदव्वं नाम पुव्वकालगहियं कुसाइ नायव्वमिति अनुवट्टए, 'वोसिरणं' ति संजयसरीरस्स परिवणं 'अवलोयणं' बिइयदिने निरिक्खणंति 'सुहासु हगइविसेसो य'त्ति सुहासुहगतिविसमो वंतराइ उववायभेया यत्ति भणियं होइ, एसा अचित्तसंजयपारिडावणिया भणिया, इदानिं असंजयमणुस्साणं भन्नइ, तत्थ गाहाअस्संजयमनुएहि जा सा दुविहाय आनुपुच्चीए । सच्चितेहिं सुविहिया ! अच्चित्तेहिं च नायव्वा ||६६ ॥ वृ- इयं निगदसिद्धैव, तत्थ सचित्तेहिं भन्नइ, कहं पुण तीए संभवोत्ति ?, आहकप्पठ्ठगरूयस्स उ वोसिरणं संजयाण वसहीए । उदयपह बहुसमागम विपज्जहालोयणं कुज्जा ।।६७ ॥ वृ- काइ अविरइया संजयाण वसहीए कप्पट्ठगरूवं साहरेज्जा, सा तिहिं कारणेहिं छुडभेज्जा, किं ? -एएसिं उड्डाहो भवउत्ति छुहेज्जा पडिनीययाए, काइ साहम्मिणी लिंगत्थी एएहिं मम लिंग हरियंति एएण पडिणिवेसेण कम्पट्टगरूवं पडियस्सयसभीवे साहरेज्जा, अहवा चरिया तव्वन्निगिणी बोडिगिणी पाहुडिया वा मा अम्हाणं अजसो भविस्सइ तओ संजओवस्सगसमीवे ठवेज्जा एएसिं उड्डाओ होउत्ति, अनुकंपाए काइ दुक्काले दारयरूवं छड्डिउंकामा चिंतेइ एए भगवंतो सत्ताहियट्ठाए उडिया, एतेसिं वसहीए साहरामि, एए सिं भत्तं पानं वा दाहिंति, अहवा कहिंवि सेज्जायरेसु वा इयरघरेसु वा छुभिस्संति, अओ साहुवस्सए परिद्ववेज्जा, भएणकाइ य रंडा पउत्थवइया साहरेज्जा, एए अनुकंपइहिंति, तत्थ का विही ? - दिवसे २ वसही वसहेहिं चत्तारि वारा परियंचियघा, पच्चसे पओए अवरण्हे अड्डस्ते, मामा एए दोसा होहिंति, जइ विगिचंती दिट्ठा ताहे बोलो कीरइ एसा इत्थिया दारय छड्डेऊण पलाया, ताहे लोगो एइ पेच्छइ य तं ताहे सो लोगो जं जाणउ तं करेउ, अह न दिट्टा ताहे विगिंचिज्जइ, उदयपहे जनो वा जत्थ पएसे पए निग्गओ अच्छइ तत्थ ठवेत्ता पडिचरइ ओहो जहा लोगो न जाणइ जहा किंचि पडिक्खंतो अच्छा, जहा तं सुणएण कारण वा मज्जारेण वा न मारिज्जइ, जाहे केणइ दिट्ठं ताहे सो ओसरइ । सचित्तासंजयमनुयपरिद्वावणिया गया, इदानिं अचित्तासंजयमणुयपरिद्वावणिया भन्नइ पडिनीयसरीरछुहणे वणीमगासु होइ अच्चित्ता । तोवेक्खकालकरणं विप्पजहविगिंचणं कुज्जा ।।६८ ॥ # वृ- पडिनीओ कोइ वणीमगसरीरं छुहेज्ज जहा एएसिं उड्डाहो भवउत्ति, वणीमगो वा तत्थ गंतूण मओ, केणइ वा मारेऊण एत्थ निद्दोसंति छड्डिओ, अविरइयाए मनुस्सेग वा उक्कललंबियं होज्जा, तत्थ तहेव बोलं करेति, लोगस्स कहिज्जइ एसो णट्ठोत्ति, उक्कलंविए निधिन्त्रेण वारेंताणं रडंताणं मारिओ अप्पा होज्जा ताहे दिट्ठे कालक्खेवी कायव्वो, पडिलेहिऊण जइ कोइ नत्थि ताहे जत्थ कस्सइ निवेसणं न होइ तत्थ विगिंचिज्जइ उप्पेक्खेज्ज वा, पओसो वट्टइ संचरइ लोगो ताहे निस्संचरे विवेगो जहा एत्थ आएसे न उवेक्खेयघो ताहे चेव विगिंचिज्जइ अइपहाए संचिक्खावेत्ता अप्पसागारिए विगिंचिज्जइ, जइ नत्थि कोइ पडियरइ, अह कोड़ पडियरइ तस्सेव उवरिं छुडभइ, एवं विप्पजहणा, विगिंचणा नामं जं तत्थ तस्स भंडोवगरणं तस्स विवेगो, जइ रुहिरं ताहे न छड्डेज्जइ, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003377
Book TitleAgam Sutra Satik 40 Aavashyak MoolSutra 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year2000
Total Pages808
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 40, & agam_aavashyak
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy