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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः
६२७ ऐसे ही ‘राध संसिद्धौं' (स्वा०प०) धातु से-रानुवन्ति । 'शक्ल शक्तौ (स्वा०प०) धातु से-शक्नुवन्ति।
(२) चिक्षियतुः । क्षि+लिट् । क्षि+ल। क्षि+तस् । क्षि+अतुस् । क्षि-क्षि-अतुस् । कि-क्षि-अतुस् । चि-क्षि+अतुस् । चि-क्ष् इयङ्+अतुस् । चि+क्ष् इय्+अतुस् । चिक्षियतुः ।
यहां क्षि क्षये' (भ्वा०प०) धातु से 'परोक्षे लिट्' (३।२।११५) से भूतकाल अर्थ में लिट्' प्रत्यय है। 'परस्मैपदानां णल०' (३।४।८२) से तस्' के स्थान में 'अतुस्' आदेश और 'लिटि धातोरनभ्यासस्य (६।१८) से धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से इकारान्त क्षि' धातु को अजादि अतुस्' प्रत्यय परे होने पर इयङ्' आदेश होता है। कुहोश्चुः' (७।४।६२) से अभ्यास के ककार को चवर्ग चकार होता है। ऐसे ही 'उस्' प्रत्यय परे होने पर-चिक्षियुः । 'लून छेदने (क्रया०उ०) धातु से-लुलुवतुः, लुलुवुः । यहां उवङ्' आदेश है।
(३) नियौ। नी+औ। न् इयङ्+औ। न इय्+औ। नियौ।
यहां ‘णीज्ञ प्रापणे' धातु से सत्सूद्विषः' (३।२।६१) से 'क्विप्' प्रत्यय है। वरपृक्तस्य' (६।१।६६) से 'क्विप्' का सर्वहारी लोप होता है। क्विबन्तो धातुत्वं न जहाति' इस आप्तवचन से 'क्विप्-प्रत्ययान्त शब्द धातुभाव को नहीं छोड़ता है। अत: इस सूत्र से ईकारान्त नी' धातु को अजादि औ' प्रत्यय परे होने पर इयङ्' आदेश होता है। ऐसे ही 'जस्' प्रत्यय परे होने पर-नियः।
(४) लुवौ । यहां लूज़ छेदने' (क्रया उ०) धातु से 'क्विप् च' (३।२।१७८) से 'विप्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् ऊकारान्त 'लू' धातु को अजादि औ' प्रत्यय परे होने पर 'उवङ्' आदेश होता है। ऐसे ही जस्' प्रत्यय परे होने पर-लुवः ।
(५) ध्रुवौ । भ्रू+औ। भ्र उवड्+औ। भ्रू उव्+औ। ध्रुवौ।
यहां 'धू' शब्द को अजादि औ' प्रत्यय परे होने पर उवङ्' आदेश होता है। ऐसे ही जस्' प्रत्यय परे होने पर-भुवः । इयङ्-उवङादेशौ
(३) अभ्यासस्यासवर्णे ७८ प०वि०-अभ्यासस्य ६।१ असवर्णे ७।१। स०-न सवर्णम् इति असवर्णम्, तस्मिन्-असवर्णे (नञ्तत्पुरुषः) । अनु०-अङ्गस्य, अचि, वोः, इयडुवङौ इति चानुवर्तते । अन्वयः-अङ्गस्य य्वोरभ्यासस्य असवर्णेऽचि इयडुवङौ।