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षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५७३ आर्यभाषा: अर्थ-(जान्तनशाम्) जकारान्त और नश् (अङ्गस्य) अंग के (उपधायाः) उपधाभूत (नलोप:) नकार का लोप (विभाषा) विकल्प से (न) नहीं होता है।
उदा०-(जान्त) र-रङ्क्त्वा, रक्त्वा । रंगकर। भञ्ज्-भक्त्वा , भक्त्वा । तोड़कर। (नश्) नंष्ट्वा , नष्ट्वा, इट्-पक्ष में-नशित्वा । अदृष्ट होकर।
सिद्धि-(१) रङ्क्त्वा । रज्+क्त्वा। रज्ज्+त्वा। रङ्ग्+त्वा। रक्+त्वा। रत्वा।
यहां रज रागे' (भ्वा०प०) धातु से समानकर्तृकयो: पूर्वकाले' (३।२।२१) से क्त्वा' प्रत्यय है। इस सूत्र से जकारान्त रज' अंग के उपधाभूत नकार का लोप नहीं होता है। 'अनिदितां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से नकार का लोप प्राप्त था, उसका प्रतिषेध किया गया है। चो: कु:' (८।२।३०) से जकार को कवर्ग गकार और खरि च' (८/४/५४) से गकार को चर् ककार होता है। विकल्प-पक्ष में नकार का लोप है-रक्वा ।
(२) नंष्ट्वा । नश्+क्त्वा । नश्+त्वा । न नुम् श्+त्वा। न न् श्+त्वा। न श्+त्वा। नष्+ट्त्वा । नंष्ट्त्वा ।
यहां णश अदर्शने' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् क्त्वा' प्रत्यय है। मस्जिनशोझलि' (७।१।६०) से 'नश्' को नुम्' आगम होता है। इस सूत्र से 'नंश्' के उपधाभूत नकार का लोप नहीं होता है। पूर्वोक्त प्राप्ति का इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। नश्चापदान्तस्य झलि' (१।१।४४) से नकार को अनुस्वार होता है। व्रश्चभ्रस्ज०' (७।२।३६) से शकार को षकार और ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से तकार को टकार होता है। विकल्प-पक्ष में नकार का लोप है-नष्टत्वा । नशित्वा' यहां 'रधादिभ्यश्च' (७।२।४५) से विकल्प से इट् आगम होता है।
विशेष: रक्त्वा ' आदि में 'अनिदितां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से नकार लोप प्राप्त था, अत: यह प्राप्त विभाषा है। नवेति विभाषा' (१११४४) से निषेध और विकल्प की विभाषा-संज्ञा की गई है, अत: इस प्राप्त विभाषा-सूत्र में नकार से प्राप्त का प्रतिषेध होकर 'वा' से विकल्प होता है। विभाषा न भवति' का यही अभिप्राय है। नलोप-विकल्प:
(११) भजेश्च चिणि।३३। प०वि०-भजे: ६।१ च अव्ययपदम्, चिणि ७।१। अनु०-अङ्गस्य, उपधाया:, नलोपः, विभाषा इति चानुवर्तते। अन्वय:-भजेश्चाङ्गस्य चिणि उपधाया विभाषा नलोपः ।