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षष्ठाध्यायस्य तृतीयः पादः
५३६ आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) संहिता विषय में (अन्येषाम्) अन्य शब्दों को (अपि) भी (दीर्घ:) दीर्घ (दृश्यते) देखा जाता है। जिस शब्द को पहले दीर्घ-विधान नहीं किया गया है, और शिष्ट प्रयोग में दीर्घ देखा जाता है, उसका इस सूत्र से साधुत्व जानें।
उदा०-केशाकेशि । परस्पर के केश पकड़ कर प्रवृत्त हुआ युद्ध। कचाकचि। अर्थ पूर्ववत् है। नारकः । नरक। पूरुषः । पुरुष।
सिद्धि-केशाकेशि। यहां केश और केश शब्दों का तत्र तेनेदमिति सरूपे (२।२।२७) से बहुव्रीहि समास है। 'इच् कर्मव्यतिहारे' (५।४।१२७) से समासान्त 'इच्' प्रत्यय होता है। इस सूत्र से केश शब्द को केश शब्द उत्तरपद होने पर दीर्घत्व को साध माना जाता है। ऐसे ही-कचाकचि, नारकः, पूरुषः।
दीर्घः
(२४) चौ।१३८ वि०-चौ ७१। अनु०-उत्तरपदे, संहितायाम्, पूर्वस्य, दीर्घः, अण् इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां पूर्वस्याणश्चावुत्तरपदे दीर्घः । अर्थ:-संहितायां विषये पूर्वस्याणश्चावुत्तरपदे परतो दी| भवति ।
उदा०-दधि अञ्चतीति-दध्यङ् । दधीच: पश्य। दधीचा कृतम् । दधीचे देहि। मधु अञ्चतीति-मध्वङ्। मधूच: पश्य। मधूचा कृतम् । मधूचे देहि।
अत्र 'चौ' इत्यनेन लुप्तनकाराकारोऽञ्चतिर्गृह्यते।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) संहिता विषय में (पूर्वस्य) पूर्ववर्ती (अण:) अण को (चौ) लुप्त नकारक अञ्चति शब्द परे होने पर (दीर्घ:) दीर्घ होता है।
उदा०-दध्यङ् । दधि (दही) को प्राप्त करनेवाला। दधीच: पश्य । तू दधि को प्राप्त करनेवालों को देख । दधीचा कृतम् । दधि को प्राप्त करनेवाले के द्वारा किया गया कार्य। दधीचे देहि । दधि को प्राप्त करनेवाले को दे। मध्वङ् । मधु को प्राप्त करनेवाला। मधूच: पश्य। मधु को प्राप्त करनेवालों को देख। मधूचा कृतम्। मधु को प्राप्त करनेवाले के द्वारा किया गया। मधूचे देहि। मधु को प्राप्त करनेवाले को दे।
सिद्धि-दधीच: । दधि+अञ्चु+स्विप्। दधि+अञ्च्+वि। दधि+अञ्च्+० । दधि+अच्+शस् । दधि+अच्+अस् । दधी+०च्+अस्। दधीचस् । दधीचरु । दधीचर् । दधीचः ।
यहां दधि उपपद 'अञ्चु गतौ (भ्वा०प०) धातु से 'ऋत्विक्दधृक्०' (३।२।५९) से 'क्विप्' प्रत्यय है। 'अनिदितां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से 'अञ्चु' के