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षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः सिद्धि-(१) स्तूपेशाणः। यहां सप्तम्यन्त स्तूप और धर्म्यवाची शाण शब्दों का संज्ञायाम् (२।१।४४) से सप्तमीतत्पुरुष समास है। यह नित्यसमास है क्योंकि विग्रहवाक्य से संज्ञा की प्रतीति नहीं होती है। कारनाम्नि च प्राचां हलादौ' (६।३।१०) से सप्तमीविभक्ति का अलुक् होता है। इस सूत्र से धर्म्यवाची 'शाण' शब्द उत्तरपद होने पर सप्तम्यन्त स्तूपे' पूर्वपद आधुदात्त होता है। यह समासस्य' (६।१।१२७) से प्राप्त अन्तोदात्त स्वर का अपवाद है। ऐसे ही-मुकुटेकार्षापणम्, हलैद्विपदिका, हलैत्रिपदिका, दृषदिमाषकः।
(२) याज्ञिकाश्व: । यहां हारीवाची याज्ञिक और धर्म्यवाची अश्व शब्दों का षष्ठी' (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से धर्म्यवाची अश्व शब्द उत्तरपद होने पर हारीवाची याज्ञिक पूर्वपद आद्युदात्त होता है। ऐसे ही-वैयाकरणहस्ती, मातुलाश्वः, पितृव्यगवः । आधुदात्तम्
(३) युक्ते च।६६ । प०वि०-युक्ते ७।१ च अव्ययपदम्। अनु०-पूर्वपदम्, आदि:, उदात्त इति चानुवर्तते। अन्वय:-युक्ते च पूर्वपदमादिरुदात्त: । अर्थ:-युक्तवाचिनि च समासे पूर्वपदमाधुदात्तं भवति ।
उदा०-गवां बल्लव इति गोबल्लव: । अश्वानां बल्लव इति अश्वबल्लव:। गवां मणिन्द इति गोमणिन्दः । अश्वानां मणिन्द इति अश्वमणिन्द: । गवां संख्य इति गोसंख्य: । अश्वानां संख्य इति अश्वसंख्यः ।
युक्तः समाहितः । य: स्वकर्तव्ये तत्पर: स युक्त इत्यभिधीयते ।
आर्यभाषा: अर्थ- (युक्ते) युक्तवाची समास में (च) भी (पूर्वपदम्) पूर्वपद (आदिरुदात्त:) आद्युदात्त होता है।
उदा०-गोबेल्लव: । गौओं का पालक अर्थात् उनके पालन में युक्त तत्पर । अश्वबल्लवः । घोड़ों का पालक । गोमणिन्दः । गौओं पर पहचान के लिये मणि नामक लक्षण (चिह्न) लगानेवाला। अश्वमणिन्दः । घोड़ों पर पहचान के लिये मणि नामक लक्षण लगानेवाला। गोसंख्यः । गौओं की भलीभांति देखभाल करनेवाला। अश्वसंख्यः । घोड़ों की भलीभांति देखभाल करनेवाला।
युक्त' शब्द समाहित अर्थात् अपने कर्तव्य में तत्पर अर्थ का वाचक है।
सिद्धि-(१) गोबेल्लव: । यहां गो और बल्लव शब्द का षष्ठी' (२।२।८) से युक्तवाची षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से इसके गो' पूर्वपद को आधुदात्त स्वर होता