SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 494
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७७ पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः स०-नञ् च दुर् च सुश्च ते नदुःसव:, तेभ्य:-नजदु:सुभ्य: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ, अच् इति चानुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ नजदु:सुभ्यो हलिसक्थिभ्याम् अन्यतरस्यां समासान्तोऽच्। अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे नन्दु:सुभ्यः परस्माद् हल्यन्तात् सक्थ्यन्ताच्च प्रातिपदिकाद् विकल्पेन समासान्तोऽच् प्रत्ययो भवति । उदा०-(हलि:) अविद्यमाना हलियस्य स:-अहल:, अहलि: । दुष्ठु हलियस्य स:-दुईल:, दुईलि: । सुष्ठु हलियस्य स:-सुहलः, सुहलि: । (सक्थि:) अविद्यमान: सक्थिर्यस्य स:-असक्थः, असक्थिः। दुष्ठु सक्थिर्यस्य स:-दु:सक्थः, दु:सक्थि: । सुष्ठु सक्थिर्यस्य स:-सुसक्थः, सुसक्थिः । आर्यभाषा: अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (नदुःसुभ्य:) नञ्, दुर्, सु से परे (हलिसक्थ्यो :) हलि और सक्थि शब्द जिसके अन्त में हैं उस प्रातिपदिक से (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (समासान्तः) समास का अवयव (अच्) अच् प्रत्यय होता है। उदा०-(हलि.) अविद्यमान है हलि बड़ा हळ जिसका वह-अहल, अहलि। दुखराब है हलि बड़ा हळ जिसका वह-दुर्हल, दुहील। सु-अच्छा है हलि बड़ा हळ जिसका वह-सुहल, सुहलि। (सक्थि) अविद्यमान है सक्थि-जंघा जिसकी वह-असक्थ, असक्थि। दुर्-खराब है सक्थि-जंघा जिसकी वह-दुःसक्थ, दु:खक्थि। सु-अच्छी है सक्थि जंघा जिसकी वह-सुसक्थ, सुसक्थि। सिद्धि-(१) अहल: । नञ्+सु+हलि+सु । अ+हलि+अच् । अहल्+अ। अहल+सु। अहल:। यहां नञ् और हलि शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। अहलि' शब्द से इस सूत्र से समासान्त 'अच्' प्रत्यय है। यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही-दुहेल:, सुहलः । असक्थः, दुःसक्थः, सुसक्थः । (२) अहलि: । यहां 'अहलि' शब्द से इस सूत्र से विकल्प पक्ष में समसान्त 'अच्' प्रत्यय नहीं है। ऐसे ही-दुहलि., सुहलिः । असक्थिः, दुःसक्थिः, सुसक्थिः । असिच् (१०) नित्यमसिच् प्रजामेधयोः ।१२२। प०वि०-नित्यम् ११ असिच् ११ प्रजा-मेधयो: ६।२ (पञ्चम्यर्थे)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy