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________________ ३१६ इष्ठन्+ईयसुन् पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम् (४) अजादी गुणवचनादेव । ५८ । प०वि० - अजादी १ । २ गुणवचनात् ५ । १ एव अव्ययपदम् । स०-अच् आदिर्ययोस्तौ-अजादी ( बहुव्रीहि: ) इष्ठन् - ईयसुनावित्यर्थः । अन्वयः-अजादी गुणवचनात् प्रातिपदिकाद् एव। अर्थ:-अजादी=इष्ठन्-ईयसुनौ प्रत्ययौ गुणवचनात् प्रातिपदिकादेव भवतः, नान्यस्मात् । उदा०- सर्वे इमे पटव:-अयमेषामतिशयेन पटुः:-पटिष्ठः । लघिष्ठः। गरिष्ठः (इष्ठन्) । द्वाविमौ पटू-अयमनयोरतिशयेन पटुः- पटीयान् । लघीयान् । गरीयान् । आर्यभाषाः अर्थ-(अजादी) अच् जिनके आदि में है वे इष्ठन् और ईयसुन् प्रत्यय (गुणवचनात् ) गुणवाची प्रातिपदिक से (एव) ही होते हैं, अन्य द्रव्य, जाति तथा क्रियावाची से नहीं होते हैं। उदा० - ये सब पटु हैं - यह इनमें अतिशय से पटु है-पटिष्ठ है। सब लघु है- यह इन सबमें लघु 'है - लघिष्ठ है। ये सब गुरु हैं - यह इन सब में गुरु है -गरिष्ठ है ( इष्ठन् ) । ये दोनों पटु = चतुर हैं - यह इन दोनों में पटु है- पटीयान् है। ये दोनों लघु हैं - यह इन दोनों में लघु है- लघीयान् है । ये दोनों गुरु हैं- यह इन दोनों में गुरु है - गरीयान् है (ईयसुन्) । सिद्धि-'पटिष्ठ' आदि पदों की सिद्धि पूर्ववत् है । इष्ठन् + ईयसुन् Jain Education International (५) तुश्छन्दसि । ५६ । प०वि०-तुः ५ ।१ छन्दसि ७।१। अनु० - अजादी इत्यनुवर्तते । अन्वयः-छन्दसि तुः=तृ-अन्ताद् अजादी=इष्ठन्-ईयसुनौ । अर्थ:-छन्दसि विषये तु: =तृ - अन्तात् प्रातिपदिकादपि अजादी= इष्ठन्-ईयसुनौ प्रत्ययौ भवतः । 'तु:' इत्यनेन तृन् - तृचो : सामान्येन ग्रहणं क्रियते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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