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________________ ३८५ छ: चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः ३८५ {अभिजनः} (३) आयुधजीविभ्यश्छः पर्वते।६१। प०वि०-आयुध-जीविभ्य: ४।३ छ: १।१ पर्वते ७।१ (पञ्चम्यर्थे) । अनु०-स:, अस्य, अभिजन इति चानुवर्तते। अन्वय:-स पर्वताद् अस्य छोऽभिजन आयुधजीविभ्यः । अर्थ:-स इति प्रथमासमर्थात् पर्वतवाचिन: प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे छ: प्रत्ययो भवति, आयुधजीविभ्य: आयुजीविनोऽभिधातुम्। उदा०-हृद्गोल: पर्वतोऽभिजन एषामायुधजीविनामेते-हृद्गोलीया: । अन्धकवर्तीया: । रोहितगिरीया: । आर्यभाषा: अर्थ-(स:) प्रथमा-समर्थ (पर्वते) पर्वतवाची प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (छ:) छ प्रत्यय होता है (अभिजन:) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह अभिजन हो (आयुजीविभ्य:) यह प्रत्ययविधि आयुजीवी लोगों के कथन के लिये है। उदा०-हृद्गोल नामक पर्वत है अभिजन इन आयुधजीवी लोगों का ये-हृद्गोलीय। अन्धकवर्त नामक पर्वत है अभिजन इन आयुधजीवी लोगों का ये-अन्धकवर्तीय। रोहितगिरि नामक पर्वत है अभिजन इन आयुधजीवी लोगों का ये-रोहितगिरीय। सिद्धि-हृद्गोलीय: । हृद्गोल+सु+छ। हृद्गोल+ईय। हृद्गोलीय+सु । हृद्गोलीयः । यहां प्रथमा-समर्थ अभिजन एवं पर्वतवाची हृद्गोल' शब्द से अस्य (इसका) अर्थ में तथा आयुधजीवी लोगों के कथन के लिये इस सूत्र से छ: प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से छु' के स्थान में ईय' आदेश और यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-अन्धकवर्तीयाः, रोहितगिरीयाः । विशेष: आयुधजीवी वे लोग होते हैं जो वेतन लेकर किसी के लिए भी लड़ने को तैयार रहते हैं, जैसे गोरखे (आ०भा० प्रथमावृत्ति टि०पृ० १६४)। ज्य: {अभिजनः (४) शण्डिकादिभ्यो त्र्यः ।६२ । प०वि०-शण्डिक-आदिभ्य: ५।३ ज्य: ११। स०-शण्डिक आदिर्येषां ते शण्डिकादयः, तेभ्य:-शण्डिकादिभ्यः (बहुव्रीहिः)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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