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________________ ३३१ तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः घञ् (२६) परौ यज्ञे।४७। प०वि०-परौ ७।१ यज्ञे ७।१ । अनु०-घञ्, ग्रह इति चानुवर्तते। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च यज्ञे परौ ग्रहो धातोर्घञ् । अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे यज्ञविषये च वर्तमानात् परि-पूर्वाद् ग्रह-धातो: परो घञ् प्रत्ययो भवति। उदा०-यज्ञवेद्या उत्तर: परिग्राह: । यज्ञवेद्या अधर: परिग्राह: । आर्यभाषा-अर्थ-(अकरि) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में तथा (यज्ञे) यज्ञविषय में विद्यमान (परौ) परि उपसर्गपूर्वक (ग्रह:) ग्रह (धातो:) धातु से परे (घर) घञ् प्रत्यय होता है। उदा०-यज्ञवेद्या उत्तरः परिग्राहः । स्पय (तलवार के आकार का यज्ञीयपात्र) से यज्ञवेदी के उत्तर भाग को ग्रहण करना। यज्ञवेद्या अधर: परिग्राहः । स्फ्य से यज्ञवेदी के अधोभाग को ग्रहण करना। सिद्धि-परिग्राह: । यहां परि' उपसर्गपूर्वक 'ग्रह उपादाने (या०प०) धातु से भाव में तथा यज्ञ विषय में इस सूत्र से 'घ' प्रत्यय है। 'अत उपधायाः' (७।२।११६) से ग्रह धातु की उपधावद्धि होती है। घञ् (३०) नौ वृ धान्ये ।४८ । प०वि०-नौ ७१ वृ ५ ।१ (लुप्तपञ्चमीनिर्देश:) धान्ये ७।१। अनु०-घञ् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च नौ वृ-धातोर्घञ्, धान्ये। अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानाद् नि-पूर्वाद् वृ-धातो: परो घञ् प्रत्ययो भवति, धान्यविशेषेऽभिधेये। उदा०-नीवारा नाम व्रीहयो भवन्ति । निद्रियन्त इति नीवारा: । आर्यभाषा-अर्थ- (अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (नौ) नि-उपसर्गपूर्वक (वृ) वृ (धातो:) धातु से परे (घञ्) घञ् प्रत्यय होता है, यदि वहां (धान्ये) धान्यविशेष का कथन हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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