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________________ ३२२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-उद्ग्राहः । उत्कृष्ट विद्यादि गुण ग्रहण करना। सिद्धि-उग्राहः । उत्+ग्रह+घञ् । उत्+ग्राह+अ। उद्ग्राह+सु। उद्ग्राहः । यहां उत्' उपसर्गपूर्वक 'ग्रह उपादाने (क्रया०प०) धातु से भाव में इस सूत्र से घञ् प्रत्यय है। 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से ग्रह् धातु को उपधावृद्धि होती है। घ __ (१८) समि मुष्टौ।३६। प०वि०-समि ७।१ मुष्टौ ७।१। अनु०-घञ्, ग्रह इति चानुवर्तते। अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे मुष्टौ च विषये सम्-पूर्वाद् ग्रह्-धातो: परो घञ् प्रत्ययो भवति। उदा०-अहो मल्लस्य संग्राह: । अहो मुष्टिकस्य संग्राहः । आर्यभाषा-अर्थ- (अकर्तरि) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे भाव अर्थ में विद्यमान तथा (मुष्टौ) मुट्ठी विषय में (समि) सम् उपसर्गपूर्वक (ग्रह:) ग्रह (धातो:) धातु से परे (घञ्) घञ् प्रत्यय होता है। उदा०-अहो मल्लस्य संग्राहः । पहलवान की मुट्ठी की पकड़ कमाल की है। अहो मुष्टिकस्य संग्राह: । मुक्केबाज की पकड़ आश्चर्यजनक है। सिद्धि-संग्राहः । सम्+ग्रह+घञ् । सम्+ग्राह+अ। संग्राह+सु । संग्राहः । यहां 'सम्उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'ग्रह' धातु से भाव में इस सूत्र से 'घञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् उपधावृद्धि होती है। घञ् (१६) परिन्योर्नीणो ताभ्रेषयोः ।३७ । प०वि०-परि-न्योः ७१२ नी-इणोः ६।२ (पञ्चम्यर्थे) द्यूतअभ्रेषयो: ७।२। स०-परिश्च निश्च तौ परिनी, तयो:-परिन्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व)। नीश्च इण् च तौ नीणौ, तयो:-नीणो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । द्यूतं चाभ्रेषश्च तौ द्यूताभेषौ, तयो:-छूताभ्रेषयोः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । ___अनु०-घञ् इत्यनुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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