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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम् 'नपुंसकस्य झलचः' (७/१/७२ ) से अङ्ग को नुम् का आगम और सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ (६/४/८) से नकारान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ होता है। ४४ (२) कुण्डानि पश्य । कुण्ड+शस् । कुण्ड+शि । कुण्ड + इ । कुण्ड + नुम्+इ। कुण्ड+न्+इ। कुण्डा+न्+इ। कुण्डानि । यहां सब कार्य पूर्ववत् है । विशेष - सर्वनामस्थान यह पूर्वाचार्यों की संज्ञा है । पाणिनि मुनि ने इस महती संज्ञा को अपने शब्दानुशासन में उसी रूप में स्वीकार कर लिया है। सुट् प्रत्यय: प०वि० - सुट् १ ।१ अनपुंसकस्य ६ । १ । स०-न नपुंसकम् इति अनपुंसकम्, तस्य - अनपुंसकस्य ( नञ्तत्पुरुषः ) । अनु०-सर्वनामस्थानम् इत्यनुवर्तते । अन्वयः-अनपुंसकस्य सुट् सर्वनामस्थानम् । अर्थः-नपुंसकभिन्नस्य शब्दस्य सुट् प्रत्ययः सर्वनामस्थानसंज्ञको भवति । (२) सुडनपुंसकस्य । ४२ । उदा०-राजा। राजानौ । राजानः । राजानम् । राजानौ । आर्यभाषा - अर्थ - (अनपुंसकस्य ) नपुंसकलिंग से भिन्न ( सुट् ) सुट् प्रत्ययों की (सर्वनामस्थानम्) सर्वनामस्थान संज्ञा होती है। सु, औ, जस्, अम्, और यहां सु से लेकर और के टकार से प्रत्याहार बनाया गया है। इन पांच प्रत्ययों को 'सुटु' कहते हैं । उदा० - राजा । राजानौ । राजानः । राजानम् । राजानौ । सिद्धि - (१) राजा । राजन्+सु । राजान्+सु । राजान्+०। राजान्। राजा। यहां सुप्रत्यय की सर्वनामस्थान संज्ञा होने से 'सर्वनामस्थाने चाऽसम्बुद्धौ (६४१८) से नकारान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ होता है। 'हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात०' (६।१ /६८) से 'सु' का लोप तथा 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' ( ८1२1७) से नकार का लोप होता है। (२) राजानौ । आदि शब्दों की सिद्धि 'राजा' शब्द के समान समझें । विभाषा संज्ञा (१) न वेति विभाषा । ४३ । प०वि०-न अव्ययपदम् । वा अव्ययपदम् । इति अव्ययपदम्। विभाषा १ । १ । अर्थ:- निषेध - विकल्पौ विभाषा संज्ञकौ भवतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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