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________________ २७८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् स०-प्रतिनिधिश्च प्रतिदानं च ते-प्रतिनिधि-प्रतिदाने, तयो:प्रतिनिधिप्रतिदानयोः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अन्वय:-प्रतिनिधिप्रतिदानयो: प्रतिनिपात: कर्मप्रवचनीयः। अर्थ:-प्रतिनिधौ प्रतिदाने चार्थे प्रति: शब्द: कर्मप्रवचनीयसंज्ञको भवति । उदा०-(प्रतिनिधौ) अभिमन्युरर्जुनत: प्रति: । (प्रतिदाने) माषानस्मै तिलेभ्य: प्रति यच्छति। ___ आर्यभाषा-अर्थ- (प्रतिनिधिप्रतिदानयोः) प्रतिनिधि और प्रतिदान अर्थ में (प्रति:) प्रति निपात की (कर्मप्रवचनीयः) कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। उदा०-(प्रतिनिधि) अभिमन्युरर्जुनत: प्रति । अभिमन्यु अर्जुन का प्रतिनिधि है। (प्रतिदान) माषान् अस्मै तिलेभ्यः प्रतियच्छति। वह इसे तिलों के बदले में उड़द देता है। प्रतिनिधि-मुख्यसदृश । प्रतिदान-बदले में देना। सिद्धि-अभिमन्युरर्जुनत: प्रति। यहां प्रति' शब्द की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होने से उसके योग में प्रतिनिधिप्रतिदाने च यस्मात् (२।३।११) से पञ्चमी विभक्ति होती है। अर्जुन तसि=अर्जुनतः । यहां 'अपादाने चाहीयरुहो:' (५।४।४५) से अपादान में तसि प्रत्यय है। इसी प्रकार-माषानस्मै तिलेभ्य: प्रतियच्छति। अधि-परी (११) अधिपरी अनर्थकौ।६३। प०वि०-अधि-परी १।२ अनर्थको १।२ । स०-अधिश्च परिश्च तौ-अधिपरी (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। न विद्यतेऽर्थान्तरं ययोस्तौ-अनर्थको (बहुव्रीहि:)। अन्वयः-अनर्थकावधिपरी निपातौ कर्मप्रवचनीयौ। अर्थ:-अनर्थको अनर्थान्तरौ अधि-परी निपातौ कर्मप्रवचनीयसंज्ञको भवत:। उदा०-(अधि) कुतोऽध्यागच्छति ? (परि) कुत: पर्यागच्छति ? आर्यभाषा-अर्थ- (अनर्थकौ) अर्थान्तर से रहित (अधिपरी) 'अधि' और 'परि' निपात की (कर्मप्रवचनीयः) कर्मप्रवचनीय संज्ञा होता है। उदा०-(अधि) कुतोऽध्यागच्छति। वह कहां से आता है ? (परि) कुत: पर्यागच्छति ? वह कहां से आता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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