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________________ १६४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२२) अधेः प्रसहने।३३। प०वि०-अधे: ५।१ प्रसहने ७।१। अनु०-'कृञः' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-प्रहसनेऽधे: कृञ: कतरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-अधि-उपसर्गपूर्वात् प्रहसनेऽर्थे वर्तमानात् कृत्रो धातो: कतरि आत्मनेपदं भवति । उदा०-प्रसहनम्=क्षमाऽभिभवो वा। शत्रुमधिकुरुते। आर्यभाषा-अर्थ-(प्रसहने) क्षमा अथवा अभिभव अर्थ में विद्यमान, (अधे:) अधि उपसर्ग से परे (कृञः) कृञ् धातु से (कतीर) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-शत्रुमधिकुरुते। शत्रु को क्षमा करता है अथवा शत्रु को दबाता है। (२३) वेः शब्दकर्मणः ।३४। प०वि०-वे: ५।१ शब्दकर्मण: ५।१। स०-शब्द: कर्म यस्य स:-शब्दकर्म, तस्मात्-शब्दकर्मण: (बहुव्रीहिः)। अनु०-'कृञः' इत्यनुवर्तते।। अन्वय:-वे: शब्दकर्मण: कृञ: कर्तरि आत्मनेपदम् । अर्थ:-वि-उपसर्गपूर्वात् शब्दकर्मकात् कृञो धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति। उदा०-क्रोष्टा स्वरान् विकुरुते। आर्यभाषा-अर्थ-वि:) वि उपसर्ग से परे (शब्दकर्माण) शब्दकर्मवाली (कृञ:) कृञ् धातु से (कतीरे) कर्मवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-क्रोष्टा स्वरान् विकुरुते । गीदड़ स्वरों को बिगाड़ता है। शब्दकर्म' का कथन इसलिये किया है कि यहां आत्मनेपद न हो-चित्तं विकरोति कामः । काम चित्त को विकृत करता है। सिद्धि-विकुरुते। वि+कृ+लट् । पूर्ववत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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