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________________ १५४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) परिक्रीणीते। परि+की+लट् । परि+की+त। परि+की+श्ना+त। परि+की+ना+त। परि+की+नी+ते। परिक्रीणीते। यहां परि' उपसर्गपूर्वक डुकृञ् द्रव्यविनिमये' (क्रया उ०) धातु से पूर्ववत् लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। यादिभ्यः श्ना' (३।११८१) से श्ना प्रत्यय और ई हल्यघो:' (६।४।११३) से 'श्ना' प्रत्यय को ईत्व होता है। जि जये (भ्वा०प०) (८) विपराभ्यां जेः।१६। प०वि०-वि-पराभ्याम् ५ ।२ जे: ५।१ । स०-विश्च पराश्च तौ-विपरौ, ताभ्याम्-विपराभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अन्वय:-विपराभ्यां जे: कर्तरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-वि-परा-उपसर्गपूर्वाद् जि-धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति । उदा०-(वि) विजयते। (परा) पराजयते। आर्यभाषा-अर्थ-(वि-पराभ्याम्) वि और परा अपसर्ग से परे (जे:) जि धातु से (कतीर) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-(वि) विजयते। जीतता है। (परा) पराजयते। हारता है। सिद्धि-(१) विजयते । वि+जि+लट् । वि+जि+त। वि+जि+शप्+त। वि+जि+अ+त। वि+जे+अ+ते। विजयते। यहां 'वि' उपसर्गपूर्वक जि जये' (भ्वादि०प०) धातु से पूर्ववत् लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। डुदाञ् दाने (जु०उ०) (6) आङो दोऽनास्यविहरणे।२०। प०वि०-आङ: ५।१ द: ५।१ अनास्यविहरणे ७१। स०-आस्यस्य विहरणमिति आस्यविहरणम्, न आस्यविहरणमिति अनास्यविहरणम्, तस्मिन्-अनास्यविहरणे (षष्ठीतत्पुरुषगर्भितनञ्तत्पुरुषः)। अन्वय:-अनास्यविहरणे आङो द: कर्तरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-अनास्यविहरणेऽर्थे आङ्-उपसर्गपूर्वाद् दा-धातो: कतरि आत्मनेपदं भवति। उदा०-विद्यामादत्ते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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