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________________ प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः १०७ (२) लृ वर्णस्य दीर्घा न सन्ति, तं द्वादशभेदं प्रचक्षते ।' लृ वर्ण के दीर्घ भेद नहीं होते हैं अत: उसके १२ बारह भेद हैं । (३) सन्ध्यक्षराणां हस्वा न सन्ति, तान्यपि द्वादशप्रभेदानि ।' (पाणिनीयशिक्षा) सन्ध्यक्षर अर्थात् ए, ऐ, ओ, औ के ह्रस्व भेद नहीं होते हैं। इसलिये उनके भी १२ बारह १२ बारह ही भेद हैं। एकश्रुतिस्वर: (५) एकश्रुति दूरात् सम्बुद्धौ । ३३ । प०वि० - एकश्रुति १ ।१ दूरात् ५ ।१ सम्बुद्धौ ७ । १ । सo - एका श्रुतिर्यस्य तत् - एकश्रुति ( बहुव्रीहि: ) श्रुतिः = श्रवणम् । अन्वयः - दूरात् सम्बुद्धावुदात्तानुदात्तस्वरितानामेकश्रुति । अर्थः- दूरात् सम्बोधने उदात्तानुदात्तस्वरितानामेकश्रुतिस्वरो भवति । उदा० - आगच्छ भो माणवक देवदत्त३ । आर्यभाषा - अर्थ - (दूरात्) किसी को दूर से (सम्बुद्धौ) सम्बोधित करनेवाले वाक्य में (एकश्रुति) उदात्त, अनुदात्त और स्वरित का एकश्रुति स्वर होता है । आगच्छ भो माणवक देवदत्त३ । हे बालक देवदत्त तू आ । विशेष - (१) उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वर के अविभाग एवं तिरोधान को एकश्रुति कहते हैं। किसी को दूर से सबोधित करते समय उस वाक्य में उदात्त आदि स्वरों का एक जैसा श्रवण होता है। पृथक्-पृथक् श्रवण नहीं होता है। (२) शब्दशास्त्र में सम्बोधन के एकवचन को 'एकवचनं सम्बुद्धि:' ( २/३ / ४९ ) के अनुसार 'सम्बुद्धि' कहते हैं । किन्तु यहां सम्बुद्धि शब्द से सम्बोधन का ग्रहण किया जाता है। (६) यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु । ३४ । प०वि०-यज्ञकर्मणि ७ । १ अजप - न्यूङ्ख- सामसु ७ ।.३ । सo-यज्ञस्य कर्मेति यज्ञकर्म, तस्मिन् यज्ञकर्मणि ( षष्ठीतत्पुरुषः) । जपश्च न्यूड्ङ्खश्च साम च तानि जपन्यूङ्खसामानि, न जपन्यूङ्खसामानीति, अजपन्यूङ्खसामानि, तेषु - अजपन्यूङ्खसामसु (इतरेतरद्वन्द्वगर्भितनञ्तत्पुरुषः) । अनु० - 'एकश्रुति' इत्यनुवर्तते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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