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________________ [73 ये तथ्य ऐतिहासिक रष्टि से सत्य तत्व-माने जा सकते हैं या नहीं, यह कहना कठिन है। दुर्भाग्य यह है कि इस सब के लिए हम उन साधनों का ही प्राधार ले सकते हैं कि जिन्हें जैन प्रस्तुत करते हैं। उनके समर्थन के अन्य । कोई ऐतिहासिक साधन या उल्लेख ऐसे मिलते ही नहीं हैं कि जिनका विचार किया जा सके । परन्तु यह कठिनाई तो महान् अलेक्जेण्डर के पूर्व के ही नहीं, अपितु उस के परवर्ती समय के मारत के मारे ही इतिहास के लिए भी है । मौभाग्य से , जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ईसवीयुग पूर्व को जैनधर्म शास्त्रीय और अन्य जैन साहित्य को हमारे युग के प्रमुख पण्डितों और ऐतिहासज्ञों ने जो प्रतिष्ठा दी और उसका साहित्यक मूल्यांकन किया है, उससे यह कहना जरा भी अतिश्योक्तिक नहीं है कि बौद्ध एवं हिन्दू इतिवृत्तों की भांति ही जैन इतिवृत्त भी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं और इसलिए उन्हें भी यथोचित विचार या आदर मिलना चाहिए। डॉ. याकोबी के शब्दों में कहें तो "जैनधर्म की उत्पति और विकास के विषय में ग्राज भी कितने ही विद्वान सशंकित सावधानी रखना ही सुरक्षित देखते हैं, हालांकि समस्त प्रश्न की वर्तमान स्थिति की दृष्टि से इसका समुचित कारण नहीं है, क्योंकि प्रचुर और प्राचीन साहित्य हमें उपलब्ध हो गया जो जैनधर्म के प्राचीन इतिहास की प्रचुर सामग्री उन लोगों को प्रदान करता है कि जो उनसे लाभ उठाने के इच्छुक हैं। इतना ही नहीं अपितु यह सामग्री ऐसी भी नहीं है कि हम उसे अविश्वास्त कहें। हम जानते हैं कि जनों के पवित्र धर्मग्रन्थ प्राचीन हैं, स्पष्टतः उस संस्कृत साहित्य से भी प्राचीन जिसे ग्रार्ष कहने के अभ्यस्त हो गए हैं। प्राचीनता में ये धर्मग्रन्य उत्तय-बौद्धों के प्राचीनतम धर्मग्रन्थों से भी तुलनीय हैं । जब कि ये बौद्धधर्म ग्रन्थ बुद्ध और बौद्धों के इतिहास की सामग्री के रूप में वारंवार प्रयुक्त किए जा चुके हैं, हम कोई भी कारण नहीं देखते कि फिर जैनों के ये पवित्र ग्रन्थ उनके इतिहास के संकलन की प्रमाणपूर्ण सामग्री के रूप में अविश्वस्त माने जाएं। यदि वे विरोधी वर्णनों से भरे हैं अथवा उनमें दी गई तिथियां परस्पर विरोधी परिणामों पर हमें पहुंचाती हैं, तो वैसी सामग्री पर आधारित सब सिद्धान्तों को शंका से देखना हमारे लिए उचित कहा जा सकता है । परन्तु जैन साहित्य इस विषय में बौद्ध साहित्य से, विशेषतया उत्तरीय बौद्धसाहित्य से कुछ भी भिन्न नहीं हैं।" इस प्रकार हमारे पास जो साधन है उनसे काशी अथवा वाराणसी के राजा अश्वसेन और कुशस्थल का राजा प्रसेनजित अथवा उसका पिता नरवर्मन को ऐतिहासिक व्यक्ति रूप मानना हमारे लिए यद्यपि कठिस है फिर भी अन्य अनेक ऐतिहासिक एवम् भौगोलिक घटनाएं ऐसी हैं कि जिनसे हम ऐसे अनेक अनुमान निक! त सकते हैं फिर जिनके पीछे कुछ ऐतिहासिक महत्व निहित हो सकता है । 1. याकोबी, सेवुई. पुस्त. 22, प्रस्ता. पृ. 9 । "हम भावो शोधकों के लिए इसका विवरण खोजने का काम छोड़ दें. परन्तु मैने उस सन्देह को अवश्य ही निर्मल कर दिया होगा कि जो कुछ पण्डितों को है कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र धर्म नहीं है और उसके धर्मशास्त्र उसके प्राचीन इतिहाप के प्रगटीकरण में विश्वस्त अभिलेख नहीं हैं।" -वही, प्रस्ता. पृ. 47 । देखो शाटियर, उत्तराध्ययनसूत्र, प्रस्ता.. पृ. 25 । 2. "अश्वसेन नाम के किसी भी व्यक्ति के होने का ब्राह्मगा उल्लेखों नहीं जाना जाता है । इस नाम का एक मात्र व्यक्ति जिसका वीरगाथा में उल्लेख है, नाग राजा था और उसे हम कि पी भी प्रकार से जैन तीर्थकर पार्व के पिता में सम्बन्धित नहीं कर सकते हैं।" -शाटियर, कहिइं, भाग 1, पृ. 154 । प्रसंगवश, यहां यह भी कह दें कि पार्श्वनाथ का सम्बन्ध जीवन भर नागों से रहा था और ग्राज भी इस सन्त का लांछन या चिन्ह नाग का फरण-छत्र है। देखो श्रीमती स्टीवन्सनं, वही, पृ. 48-49 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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