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________________ [ 217 उपसंहार जो सफल है वही चतुर है, यदि संसार का यही नियम है तो उत्तर में अपने अनेक प्रतिस्पधियों के होते हुए भी अपना अस्तित्व बनाए रखने में जैनधर्म की महान् विजय इस मान्यता को भ्रान्त प्रमाणित कर देती है कि जैनधर्म ने उत्तर भारत में, बौद्धधर्म की भांति, अपनी जड़े गहरी नहीं जमाई थी, और यह कि भारतीय इतिहास में जैनयुग जैसे नाम का कोई युग कभी नहीं रहा था । ऐसी मान्यता रखने वाले विद्वानों का पूर्ण सम्मान रखते हुए भी हम यह विश्वास रखने या करने का साहस करते हैं कि इन पृष्ठों में उत्तर-भारत में जैनधर्म के किए अध्ययन से, हालांकि वह अनेक बातों में अपर्याप्त ही है, विपरीत बात की पर्याप्त साक्षी मिलती है । उत्तर भारत में जैनधर्म की प्राचीनता चाहे जितनी भी हो, इस बात से इन्कार किया ही नहीं जा सकता है कि ई. पूर्व 800 याने पार्श्व के समय से लेकर ईसवी युग के प्रारम्भ में सिद्धसेन दिवाकर द्वारा महान् विक्रम के जैनधर्मी बनाए जाने तक और किसी अंश में कुषाण और गुप्त काल तक भी जैनधर्म उत्तर में प्रत्यन्त प्रभावशाली धर्म रहा था और इसके पर्याप्त निर्णायक प्रमाण बराबर प्राप्त हैं । एक हजार से अधिक वर्ष के इस गौरवशील काल में उत्तर में एक भी राज्यवंश ऐसा नहीं हुआ था, चाहे वह महान् हो या लघु ही, कि जो किसी न किसी समय जैनधर्म के प्रभाव में नहीं आया हो । यहाँ वहाँ की ऐतिहासिक महत्व की कुछ बातों को यदि हम छोड़ दें तो इस ग्रन्थ के प्राय: प्रत्येक अध्याय में ऐसी सामग्री मिलती है कि जिसकी खुब लम्बी खोज-परख हो चुकी है, और अनेक मत उद्धृत कर दिए है । इस प्रकार अल्पाधिक, हमारा प्रयत्न मान्य पण्डितों के परिश्रमों के परिणामों को रीतिसर संकलन करने का ही रहा है कि जैन इतिहास के अनभिलिखित युग पर पठनीय ग्रन्थ प्रस्तुत किया जा सके, न कि जैन पुरातत्व विषयक सूक्ष्म चर्चा का कोई ग्रन्थ । इस हेतु की साधना में जो भी अनुमान या तर्क किए गए हों उन्हें वैसा ही माना जाए न कि ऐसिहासिक खोज । जहाँ तक सम्भव हुअा है, सूक्ष्म विवरण से दूर ही रह गया है । फिर भी पुनरावर्तन जहाँ वह उत्तर भारतीय जैनधर्म के इस युग की आवश्यक वातों और प्रमुख तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए अावश्यक था, करने में संकोच नहीं किया गया है। परन्तु जब तक अनेक जैन शिलालेख और जैन ग्रन्थ जो उत्तर में स्थान-स्थान पर हैं, संग्रह किए जाकर अनूदित नहीं होते, और जब तक पुरातत्वाशेषों की योजना नहीं बने एवम् अंकगणना नहीं की जाए, वहाँ तक उत्तर-भारत में जैनधर्म की सत्ता और विस्तार ही नहीं, अपितु उसके अस्तित्व-समय के उतार-चढ़ावों की कुछ भी कल्पना करना निरर्थक है । यह कार्य हाथ में लिये जाने का सर्वथा उपयुक्त है और यदि ऐसा सफलता से किया जाए तो भारतीय प्रजा के धार्मिक और कला विषयक इतिहास के प्राज उपलब्ध अपर्याप्त साधनों में अमूल्य वृद्धि होगी, यह लेखक का दृढ़ विश्वास है। 1. स्मिथ, आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ. 55। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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