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________________ [ 215 उभरे शिल्प में हमें मिलता है ।" परन्तु यह भी ष्ट है कि साथी की प्राकृतियां ग्रीक राक्षसियों से अधिक मिलती हुई हैं जबकि इन शिल्प में प्राकृतियाँ प्रसिरी और ईरानी शिल्प की पंखाकृतियों जैसी अधिक औपचारिक रीति की है हिन्दूधर्म कृतियों में से गरुड़, सुपलों का राजा की प्राकृति गुप्त सिक्कों पर की तुलनीय है ।" गया और अन्य बौद्ध स्मारकों पर जो किन्नरों की प्राकृतियाँ देखी जाती हैं वे बहुत सम्भव है कि ग्रीक नमूनों के अनुरूप हैं । हमारे इस तोरण की शिला पर की प्राकृतियों ने जो विशेष दृष्टव्य बात है कि वह है वृक्ष की एक शाखा द्वारा प्राकृति के उस भाग का प्रावृत होना कि जहाँ अश्व की जंघा मनुष्य देह से जुड़ती है । " प्रार्ष पुराविद्या के निष्णात मेरे साथियों से जहाँ तक मैं जान पाया हूं, मैं कहूंगा कि इस विशिष्टता को बताने वाला ग्रीक शिल्प कोई नहीं है ।" इस शिल्प के दूसरी ओर की आकृतियों को विचार करने पर हम देखते हैं कि तोरण के लट्ठ में वरघोड़े या जुलूस का अंश ही कि जो दृश्यतः किसी पवित्र स्थान को पहुँच रहा है, दिखाया गया है। इस जुलूस की गाड़ी प्राजकल की शिगराम जैसी ही है और सारथी भी जो डण्डा हाथ में ऊँचा किए हुए हैं, उसी प्रकार वम पर बैठा है जैसे कि वह आज भी बैठता है । कितने ही पशुत्रों का कि सांची के शिल्प में दिखाया गया है । परन्तु वहाँ इस प्रकार की शिगराम गाड़ी जबकि उसके स्थान में ग्रीक नमूने के से घोड़ों के रथ वहां दीखते हैं । साज ठीक वैसा ही है जैसा बिलकुल नहीं दीख पड़ती है बार अनुभव हो जाता है जब दिया जाता था तो ये अन्त में हम वह शोभा जिला लेते हैं कि जिसके सामने की घोर महावीर के नेमेस द्वारा गर्मापहार का दृश्य विसाया हुआ है और पीछे की ओर इस महा चमत्कार से हर्षित और उत्सव मनाते नर्तिकाएं और गायिकाएँ दिखाई गई हैं । इस शिल्प को देखने से हमें फिर एक कि धार्मिक कथा और नैतिक शिक्षा जिनके विज्ञापन का कार्य भारतीय कलाकारों को उसकी कला की पूर्ण प्रभि व्यक्ति में जरा भी बाधक नहीं होते थे। मथुरा का शिल्पी उस समय अत्यन्त सन्तोषकारक सुन्दर प्राकृतियाँ उस्की करने में पूर्ण सफल हुआ प्रतीत होता है जबकि उसकी सेवाओं की उसके साथू और राजा संरक्षकों द्वारा प्रचार के लिए प्रत्यन्त ही माँग थी । विशेषतः जब उसे किसी सुप्रसिद्ध कथा या दन्तकथा के चित्रण का काम दिया जाता था तो वह ग्रनुपात और हाव-भाव के परम्परागत सिद्धान्तों का प्रयोग बहुत असाधारण रीति से कर सकता था और उनमें साम्य पैदा करने के लिए वह सर्वशक्ति लगा देता था । महावीर के गर्मापहार की लोकप्रिय दन्तकथा प्रदर्शित करने वाली इस शिला के प्रतिरिक्त चार नष्ट भ्रष्ट पुतले भी हैं जिन्हें कनिधम ने प्रस्तर लेख द्वारा मुद्रित कराया था । इनमें से दो पूतले बैठी हुई स्त्रियों के हैं । प्रत्येक की गोद में धान में रखा हुआ एक शिशु है। बाएँ हाथ से पाल सम्हाल रखा है, परन्तु दायाँ हाथ ऊपर कंधे तक उठा हुआ है । दोनों ही स्त्रियाँ नग्न दीखती हैं। दूसरे दो पूतले नेगमेशी या नेगमेशी के हैं और वे डा. न्हूलर के 1. देखी फरग्यूसन, वही, प्लेट 27, चित्र 1 । 2. देखो फ्लीट, कोईई, पुस्त. 3, प्लेट 37; स्मिथ, बंएसो पत्रिका, सं. 58, पृ. 85 प्रादि, प्लेट 6 | 3. 'ऐसा अन्य कोई भी उदाहरण नहीं मिलता है कि जहाँ प्रश्वासुर के श्रश्व और मनुष्य के संयोगस्थल को प्रावृत करने के लिए वृक्ष-पत्र को उपयोग किया गया हो।' स्मिथ, हिस्ट्री आफ फाइन आर्ट इन इण्डिया एण्ड सीलोन, पृ. 82 सर वही, पृ. 319 । 4. 5. फरम्बूसन, वही, प्लेट 33: यही प्लेट 34 चित्र 1 6. सुलर वही और वही स्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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