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________________ 202] को नमस्कार और उसकी स्तुति नहीं कर पुजारियों को प्रति रुष्ट कर दिया। उनने तुरन्त जा कर राजा विक्रमादित्य से यह शिकायत की जिसने उन्हें शिव को वन्दन करने की आज्ञा दे कर बाधित किया। तब सिद्धसेन ने कल्याणमन्दिर स्तोत्र के पाठ द्वारा शिव की स्तुति की, फल स्वरूप शिव प्रतिमा के दो टुकड़े हो गए और उस खण्ड में से जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट हो गई। इस प्रकार की दिव्य शक्ति से प्रभावित हो कर विक्रमादित्य और अनेकों ने उनसे जैन धर्म स्वीकार कर लिया ।" राजा मुरण्ड को जैनधर्मी बनाया था। यह तरंगवती नाम की अति प्राचीन पौर पादलिप्त के विषय में हम पहले ही बता आए हैं कि उनने मुरण्ड राजा 'कान्यकुब्ज की छत्तीस लाख की प्रजा का सम्राट था । " सुप्रसिद्ध रोमांच जैनकथा के रचियता के रूप में भी इनकी सुख्याति है । मूल कथा यद्यपि नष्ट हो गई दीखती है। क्योंकि वह अब तक तो उपलब्ध नहीं हुई है, परन्तु उसका बाद का किया संक्षेप 'तरंगलोला' नाम से सुरक्षित है। संक्षेपकार नेमीचन्द्र ने उलझनभरे श्लोकों और लोकपदों को इस संक्षेप में से लोप कर दिया है। संक्षेप करने का कारण बताते हुए इस नेमिचन्द्र ने स्वयम् ही कहा है कि मूल बहुत ही विस्तृत उल्झनमरा, श्लोक - यूगलकों, घटकों, कुलकों आदि पूर्ण होने से मात्र विद्वयभोग्य हो गया था और सामान्य जन उसका लाभ नहीं ले सकते थे । फिर भी तरंगवती का ही संक्षिप्त होने पर भी तरंगलीला महान् साहित्यिक रसवाली कृति है एवम् उस समय के प्रचलित लोकवार्ता साहित्य का एक अच्छा प्रतिविम्ब है कि जो संस्कृत एवं प्राकृत दोनों ही भाषाधों में तब विशाल होना चाहिए हालांकि उसके बहुत थोड़े ही ग्रन्थ हमें प्राज वारसा रूप उपलब्ध हैं। ऐसे साहित्य के अन्य नमूनों की ही मांति इस रोमांचक कथा में भी अन्त में नायक और नायिका दोनों ही संसार का त्याग कर दीक्षा ले लेते हैं। पूर्वभव का जाति स्मरण ज्ञान और उसके परिणाम ही इस कथा के हेतु हैं। इस कथानक में यत्र तत्र धार्मिक उपदेश और सूचनाएं भी मिलती ही हैं, परन्तु तब भी कथा उपदेशात्मक नहीं बन जाती है । तरंगवती के सिवा, पादलिप्त के ग्रन्थों में फलित ज्योतिष का ग्रन्थ 'प्रश्न - प्रकाश' और प्रतिमा प्रतिष्ठा पद्धति का ग्रन्थ 'निर्वारण- कलिका' या 'प्रतिष्ठा पद्धति' प्रसिद्ध है । यह निर्वारण- कलिका प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा सम्बन्धी क्रिया-काण्डों का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है । यह पुरातत्वविदों के लिए भी बड़े उपयोग का है। क्योंकि वह जैनागमों के रचना काल श्रोर वाचना-काल याने जब कि वे लिखे गए थे, के बीच की कड़ी प्रस्तुत करता है । यह संस्कृत में लिखा हुआ ग्रन्थ है । उस काल में जैनाचार्य अर्धमागधी में ही रचनाएं किया करते थे । अतः उस काल की प्रथा के प्रतिकूल संस्कृत में इसकी रचना एक आश्चर्यजनक बात है । ... इसी में आचार्यपदवी प्रदान की भी विधि दी हुई है जो बड़ी ठाठ बाठ की है। राज्यचिन्ह जैसे कि हाथी, घोड़े, पालखी, चौरी, छत्र, योगपट्टक ( पूजा करने का चित्र ), खर्टीक (कलम), पुस्तकें, स्फटिक की जपमाला, और खड़ाऊ प्राचार्य को पदवीदान के समय दिए जाते थे ।... नित्यकर्मविधि में अष्टमूर्ति का निर्देश भी एक महत्व का है। वह यह 1. हीरालाल, रायबहादुर, वही, प्रस्ता. पृ. 13 । देखो इसी कथा का विक्रमचरित में दिया जैन रूपान्तर भी देखो एड्गर्टन, वही, पृ. 253 1 2. वही, पृ. 251 I 3. देखो बेरी, निर्वण-कलिका प्रस्तावना, पृ. 12-13 1 4. झवेरी, निर्वाण - कालिका, प्रस्ता. पृ. 1। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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