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________________ 1961 इन मूलसूत्रों में दूसरा प्रावश्यकसूत्र है और इसमें जैन साधू और गृहस्थ के प्रावश्यक छह कर्तव्यों का विचार किया गया है । " इन क्रियानों के साथ ऐतिहासिक और अर्ध ऐतिहासिक महत्व के वृत्तांत भी दिए गए हैं जो कि टीकात्रों में हमें वारसे के रूप में प्राप्त होते हैं। व्यंबर के अनुसार 'इस शास्त्र में इस विषय के महावीर के सिद्धांत की विवेचना मात्र ही नहीं है अपितु इस सिद्धान्त का इतिहास भी दिया गया है, याने महावीर के पुरोगामियों का, स्वयम् महावीर का और उनके ग्यारह गणधरों, एवम् विरोधियों निन्हवो का भी वर्णन है कि जिनने उनके उपदेशों में शनैः शनै स्थान प्राप्त किया था। इन निन्हवों का कालक्रमानुसार विचार किया गया है। हरिभद्र ने प्राकृत गद्य में और कभी कभी पथ में सम्बन्धित कथाए बहुत विस्तार से दी है और विट्ठति एवं उदाहरणों की भी कथाएं दी हैं कि जो सूत्र में बहुधा दिए गए हैं। अब हम अन्तिम दो मूलसूत्रों का विचार करें। इनमें का दसवेयालिय विनय याने जैनसाधू के नियमों का विवेचन करता है । डा. विटर्निट्ज के अनुसार यह सूत्र हमें बोद्धसूत्र धम्मपद का स्मरण कराता है ।" प्रमुख जैन सिद्धांतों के सम्पूर्ण परिदर्शक इस ग्रन्थ के रचियता महावीर के चतुर्थ पट्टधर शयवम्भव या सज्जंभव हैं । श्रीमती स्टीवन्सन इस सूत्र को 'साधू जीवन में भी पाए जानेवाले पुत्र के प्रति पिता के प्रेम का स्मारक' रूप मानती है क्योंकि इसकी रचना माक नामक पुत्र के लाभार्थ ही की गई थी।" चौथा मूलसूत्र पिण्डनिज्जुती आगम का परिशिष्ट रूप मात्र है । चोथा अब जैन सिद्धांत के उन दो चूलिका सूत्रों का विचार करना ही हमारे लिए शेष रह जाता है कि जिनके नाम हैं नन्दी सूत्र धीर धनुयोगद्वारसूत्र । इन दोनों के विषय यद्यपि समान हैं परन्तु चर्चा की पद्धति भिन्न भिन्न है । दोनों ही एक प्रकार के ज्ञानकोश के समान हैं। ये पवित्र सिद्धांत शास्त्रों के यथार्थ ज्ञान और समझ के श्राधारों और रूपों की आवश्यक सूचनाओं सम्बन्धी प्रत्येक बात की पद्धतिसर समीक्षा इनमें की गई है । " इस प्रकार, व्यंबर कहता है कि इनके कर्ताओं ने पाठकों के लिए एक मध्यरूप प्रस्तावना प्रस्तुत कर दी है। उसी के शब्दों में कहें तो उन लोगों के लिए इनदोनों ग्रन्थों की योजना प्रत्यन्त ही सुधड़ है कि जो उनका प्रतिसंस्करण या संग्रह समाप्त कर पवित्र ज्ञान के ही विषय में ज्ञान प्राप्त करने के अभिलाशी है । " इस प्रकार जैनों की साहित्यक दन्तकथा के अनुसार देवगिरिण ही यद्यपि इन दोनों के रचियता हैं, परन्तु व्यैवर और शार्पेटियर के अनुसार, इस दन्तकथा या मान्यता पर प्राने का कोई भी ऐसा बाह्य कारण समझ में नहीं आता है कि जो इनकी विषयसूची से मिलने वाली सूचना से भी समर्थित होता हो। शापेंटियर कहता है कि 'अन्ततोगत्वा में समझता : 1. समरण सावरा य अवस्कायव्ययं वइ जम्हा अंतोग्रहोसिस्स व तम्हा ग्रावस्तयं नामं यावश्यकसूत्र, पृ. 53 यह आवश्यक अनुक्रम से इस प्रकार है समाश्वं याने बुरे कर्मों से निवर्तनः बडविसत्वो याने 24 तीर्थकरों की स्तुति वेदरणं वाने गुरुयों की वंदनः पक्किमरणं याने पालोचना काउसमा याने पापों की ध्यान द्वारा निर्जरा और पच्चक्खाण याने ग्रसनादि का त्याग। देखो वही । 2. व्यंवर, वही, पृ. 330 3. देखो विनिट्ज, वही, पृ. 315 1 4. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 701 5. देखो याकोबी, कल्पसूत्र, पृ. 118; पलाट, वही, पृ. 246, 251; दशनैकालिक की रचना सम्बन्धी दन्तकथा के लिए देखो हेमचन्द्र, परिशिष्टपर्वत, सगं 5 । 6. देखो व्यंवर, बही, पु. 293-294 विटर्निट्ज, वही धौर वही स्थान । 7. व्यंबर, वही, पृ. 294 1 8. देखो यही शार्पेटियर, वही प्रस्ता. 18 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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