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________________ [ 185 चला गया है । " दिगम्बरों की इस मान्यता का कि जो आज सिद्धान्त रूप से उपलब्ध है, वह मूल रूप से नहीं हैं, यही आधार है । हम आगे थोड़ी ही देर बाद देखेंगे कि उनकी यह दन्तकथा श्वेताम्बर मान्यता के कारणों के विचार दृष्टि से कुछ भी महत्व की नहीं है । में परन्तु इस प्रश्न पर विचार करने के पूर्व हम दूसरी परिषद का भी कि जो देवगिरि के नेतृत्व में बल्लमी गुजरात देश को एकत्रित हुई थी उल्लेख कर देना चाहते हैं। इस देवगिरि का जैन साहित्यक इतिहास में वैसा ही स्थान है जैसा कि बौद्ध साहित्य के इतिहास में बुद्धपोष का है। यह जैन परिषद ई. छठी सदी के प्रारम्भ में मिली थी। मगध की पहली परिषद के पश्चात् काल व्यतीत होते होते श्वेताम्बर सिद्धान्त फिर से अव्यवस्थित हो गया, यही नहीं अपितु उसके सम्पूर्णतया नष्ट हो जाने का मी पूरा पूरा भय हो गया । इसलिए जैसा कि हम पहले ही देख धाए हैं. महावीर निर्वाण के पश्चात् 980 अथवा 993वें वर्ष में एक देवधिगरि नाम के महान् जैनाचार्य ने जो कि क्षमाश्रमण कहलाता था, यह देख कर कि सिद्धान्तलुप्तप्रायः होता जा रहा है क्योंकि वह लिख नहीं लिया गया है, दूसरी बड़ी परिषद वल्लभी में एकत्रित की। बारहवां रंग तो जिसमें कि चौदह पूर्वी का ज्ञान संग्रह किया गया था, उस समय तक नष्ट हो ही चुका था और इसलिए जो कुछ शेष रहा था उसी को लिख कर तब सुस्पष्ट रूप दे दिया गया। इस प्रकार देवगिरिण का यह प्रयत्न कुछ प्राचीन लेखी प्रत पोर कुछ स्मृति परम्परा के आधार से पवित्र धर्मशास्त्रों के सिद्धान्त के संकलन और सम्पादन का ही रहा होगा । जैसा कि आधुनिक विद्वानों में से अधिकांश का मानना है, हमें भी यह शंका करने की आवश्यकता नहीं है कि सिद्धान्त का समस्त वाह्य रूप भवसेन के समय का ही है कि जिसकी संरक्षकता में यह महा परिषद सम्मिलित हुई थी। दिगम्बर दन्तकथा का विचार हम करें कि जो कहती है कि मगध के भीषण दुष्काल के बाद ही सिद्धांत सम्पूर्णतया विस्मृत या नष्ट हो गया था। पहली बात तो यह है कि इस प्रकार का प्रतिव्यापक कथन किया जा सके ऐसा कोई भी प्राधार हमें प्राप्त नहीं है। यहां एक बात प्रारम्भ में ही कह देना प्रति आवश्यक है और वह यह कि दिगम्बर भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य सब पूर्वो और प्रगों के ज्ञाता थे। उन्हें भी द्वादशांगी का श्वेताम्बरों की भांति ही बहुमान है।* इसलिए हमें यह निश्चय करना ही 1. मगध के भीषण दुष्काल यादि के लिए देखो वही स्थान | शार्पेटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 13-15; विनिट्ज, वही, और 2. शार्पेटियर वही प्रस्ता. पृ. 15 देखो बिनिट्ज वही, पृ. 293-294 याकोबी, सेबुई पुस्त 22, प्रस्ता पृ. 37-38 । एक अन्य परम्परा के अनुसार, सिद्धान्त का प्रकाशन श्री स्कंदिलाचार्य की प्रमुखता में हुई मथुरा की परिषद में हुआ था। व्यवर, इण्डि एण्टी.. पुस्त 17, पृ. 282 3. ' पूर्व सर्वसिद्धान्तानां पाठनं च मुखपाठनइ 'वा' सित ।' -याकोबी कल्पसूत्र, पृ. 117 | देखो विर्निट्ज, वही, पृ. 294 । इस परिषद के कार्य विवरण और प्रतिसंस्करणकारों की शैली को ठीक परिचय के लिए देखो शार्पेटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 16 आदि । 'प्रत्येक गुरू के अथवा कम से कम प्रत्येक उपाश्रय के लिए पवित्र धर्मग्रंथों की प्रतियां उपलब्ध करने को देवगिरि ने सिद्धान्त का बहुत बड़ा संस्करण याने अनेक प्रतियां तैयार कराई होंगी ।' - याकोबी, सेबुई, पुस्त. 22, प्रस्ता. पृ. 38 । 4. देखो कूलर, इण्डि एण्टी, पुस्त. 7 पु. 29 फिर भी हमें श्वेताम्बरों एवम् दिगम्बरों दोनों ही द्वारा कहा वाले सभ्य और सम्भवतया प्राचीन भी ग्रन्थ थे जिनकी मूलतः जाता है कि पंगों के अतिरिक्त पूर्व कहे जाने संख्या चौदह थी । याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 44 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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