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________________ [ 173 उसी विद्वान के शब्दों में “लिपि को प्राकार, और विशेषतः ह्रस्व और दीर्घ स्वरों के चिन्हित करने की विशिष्ट शैली - याने दीर्घ की मात्रा व्यंजन के दाई ओर एवम् ह्रस्व की मात्रा बाई ओर लगाना - लेख सं. 38 को इससे पूर्व का समय देने के असम्भव मेरे विचार से, बनाती है ।" गुप्त सम्वत् 113 और 57 की तिथि वाले उपरोक्त दोनों लेखों के यथार्थ काल का निर्णय करने के लिए हमें गुप्तों के प्रवतित सम्वत् का विचार करना आवश्यक है। गुप्तकाल' 'गुप्तवर्ष' जैसे शब्द को गुप्त राजों के उस्कीणित लिपिक और अन्य अभिलेखों में पाते हैं, उनसे ऐसा लगता है कि वह सम्यत् उस वंश के किसी राजा ने अवश्य ही प्रवर्तित किया होगा परन्तु इसका कोई लिखित प्रमाण बाज तक तो उपलब्ध नहीं हुमा है । परन्तु इलाहाबाद के समुद्र गुप्त के मिलाने से जाना जाता है कि चन्द्रगुप्त 1म, जो कि उसका पूर्वज था, ही ऐसा राजा है कि जो अपने को 'महाराजाधिराज' कहता है। उसके पूर्वज, गुप्त और घटोत्कच दोनों ही राजा, केवल 'महाराज' कहलाते थे। यह और इसके साथ ही समुद्रगुप्त के और चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय के शिलालेखों के उल्लेख जो कि गुप्त संवत् 82 से 83 तक 3 के हैं. पर से विद्वानों ने गुप्त सम्बत् का प्रवर्तन काल चन्द्रगुप्त 1म के राज्य काल में निश्चित किया है । 2 स्मिथ कहता है कि पौर्वात्य पद्धति से उसके राज्यारोहण समय में जबकि उसे साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया गया और जिस समय दन्तकथानुसार पाटलीपुत्र पर अधिकार किया गया तब संवत् प्रवर्तित करने जितना ही उनका राजकीय महत्व भी था । गुप्त संवत् जो कि कितनी ही सदियों तक भिन्न-भिन्न प्रदेशों में चलता रहा था, का पहला वर्ष ता 26 फरवरी सन् 320 से ता 13 मार्च सन् 321 तक का था। इसकी पहली तारीख या तिथि चन्द्रगुप्त म के राज्यारोहण की तिथि रूप ली जा सकती है ।" गुप्त संवत् के प्रवर्तन की ई. 319--320 तिथि एलबरूनी के वक्तव्य के आधार पर निश्चित की गई है जो कहता है कि शक सम्वत् के 241 वर्ष संवत् का प्रवर्तन हुआ था । तदनुसार यह ई. सन् 319-320 आता है । का यह वकव्य सत्य सिद्ध पश्चात् गुप्त अरब पर्यटक 1. वही, पृ. 198 वह प्रोसे का सं. 3 (इण्डि. एण्टी, पुस्त. 4, पु. 219) है। इसकी विवेचना करते हुए विद्वान पण्डित कहता है कि "यदि यह तिथि उसी संवत् का 57 वां वर्ष है जो कि कनिष्क और हुविष्क के लेखों में है, तो यह इस क्षेत्र में मिलने वाली प्राचीनतम् जैन मूर्ति है । परन्तु मैं यह विश्वास नहीं कर सकता हूं । मेरे विवार से यह मूर्ति अपेक्षाकृत याधुनिक है..." प्रौसे, वही, पृ. 218 1 2. "जो (समुद्रगुप्त ) मानव के प्रतिपालनार्थ प्राचारों की प्रतिमालनोत्सव करने वाला प्रत्यलोक का मानव ही था, ( परन्तु अन्यथा इस भूमि पर रहता हुग्रा अवतार जो प्रख्यात गुप्त महाराजा के पोत्र का पुत्र था; जो प्रभान्वित चन्द्रगुप्त 1म महाराजाधिराज का पुत्र था, " आदि यादि । -फ्लीट कारपस इंस्क्रिप्शनम् इण्डिकोरम, सं. 3, लेख सं. 1, पृ. 15-16 देलो प्रोफा, वही पु. 174 1 3. देखो स्मिथ, इण्डि एण्टी, पुस्त. 31, पृ. 265; ग्रोझा, वही और वही स्थान । 4. स्मिथ, ग्रर्ली हिस्ट्री ग्रॉफ इण्डिया, पृ. 296 । देखो प्रोभा, वही, पृ. 175; बार्केट, एण्टीक्विटीज ग्रॉफ इण्डिया, पू. 46 " 5. गुप्तकाल के सम्बन्ध में लोग कहते हैं कि गुप्त बड़े दुष्ट और शक्तिशाली ये और जब उनका प्रस्तित्व मिट गया तो यह तिथि एक युग प्रवर्तन की मान ली गई। ऐसा मालूम होता है कि वल्लभ इनका अन्तिम सम्राट था क्योंकि गुप्त युग का संवत्, वल्लभी युग के संवत् की भाँति ही, शक काल के 241 वर्ष बाद ही शुरू होता है।" - सचाश्रो, एलबरूनीज इण्डिया, भाग 2, पृ. 7 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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