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________________ [ 150 सफलता पूर्वक इस अपमान का बदला लिया । डा. शार्पटियर कहता है कि यह दन्तकथा ऐतिहासिक रस की माई REPREETTER तनिक भी नहीं हो सो बिलकुल बांत नहीं है क्योंकि इसमें यह उल्लेख है कि कैसे जैनाचार्य कालक, उज्जैन के राजा गर्दीमल्ल द्वारा जो कि, अनेक दन्तकथाओं के अनुसार सुप्रख्यात विक्रमादित्य का पिता था, अपमानित किए जाने पर उससे प्रतिशोध लेने की दृष्टि से शकों के देश को जिसका कि राजा साहानसाही' कहलाता था, गए। यह विरुद्ध, ग्रीक और भारतीय रूपों में, निश्चय ही पंजाब के शक राजों मौएस एवम् उसके उत्तराधिकारियों द्वारा जो कि इस युगे के हैं, वहन किया जाता था। उनके उत्तराधिकारी कुषाण राजों के सिक्कों पर शामोनानो शामो रूप में यह वस्तुत, पाया जाता है। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना सर्वथा उचित ही है कि दंतकथा किसी अंश में अवश्य ही ऐतिहासिक है। जो भी हो, कथा आगे चल कर कहती है कि कालक ने कितने ही शक सत्रपों को उज्जैन पर चढ़ाई और गर्दीमल्ल वंश का उच्छेद करने को तैयार कर लिया। परन्तु उसके कुछ वर्ष बाद ही उसके पुत्र विक्रमादित्य ने आक्रामकों को वहां से निकाल भगाया और अपने पूर्वजों की गद्दी फिर से प्राप्त कर ली। इस दन्तकथा का ऐतिहासिक आधार क्या है यह सर्वथा अनिश्चित है । सम्भव हो कि इसमें ई. पूर्व पहली सदी में हुए पश्चिमी भारत में सिथियन राज्य की घुघली स्मृति ही हो। तथ्य जो भी हो, परन्तु यह जैनों का उज्जैन के साथ सम्बन्ध का निःसन्देह एक और प्रमारण प्रस्तुत करता है। यही बात उनके विक्रम संवत् के प्रयोग से भी कि जो मालवा देश में जिसकी कि राजघानी उज्जैन थी, प्रचलित हुअा था, सूचित होती है। जैनाचार्य कालक के सम्बन्ध में दूसरी बात यह कहने की है कि वे दक्खन के प्रतिष्ठानपुर के राजा सातयान के पास भी गए थे। राजा इन्द्रमहोत्सव के कारण भाद्र शुक्ला पंचमी को पयूषण' जैन वर्ष की समाप्ति का धार्मिक पर्व में भाग लेने में अशक्त था । अतः गुरू ने एक दिन पूर्व याने भाद्र शुक्ला चतुर्थी को वह पर्व उसके लिए मनाया। तभी में समस्त जैन समाज चौथ का सम्वत्सरी व्रत करने लगा हालांकि परवर्ती काल में बहुत वर्षों के बाद अनेक गच्छों के उद्भव होने के कारण यह चौथ उसी माह की पंचमी में फिर से बदला गई है। यह घटना यदि सत्य 1. कालिकाचार्य-कथा, गाथा 9-40, पृ. 1-4 । देखो कोनोव, एपी. इण्डि., पुस्त. 14, पृ. 293 । 'गर्दीमल्लो च्छेदक कालकसूरि वीरात् 453 में हुए थे ।'-क्लाट, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 1!, पृ. 251 । देखो वही, पृ. 24738 शाटियर, कहिइं, भाग 1, पृ. 168; श्रीमती स्टीवन्मन, वही, पृ. 75, मैसूर आकियालोजिकल रिपोर्ट, 1923, पृ. 11। 2. वशीकृतः सरिवरः स साहि ।-कालकाचार्य-कथा, गाथा 26, पृ. 2; साहानसाहिः स च मण्यतेर्डत्र । --वही, गाथा 27, पृ. 3 । देखो... । जैन ग्रंथ कालकाचार्य-कथानक में कहा है कि उनके राजा साही कहे जाते थे।' रायचौधरी, वही, पृ. 274; याकोबी, जेडडीएमजी, सं. 34, पृ. 262 । देखो कोनोव, वही, पृ. 293 । 3. उस (विक्रमादित्य) ने राष्ट्र और हिन्दूधर्म, सिथियनों को पूर्णतया हराकर, की रक्षा की कि जिनका राजनीतिक महत्व और विदेशीय प्राचार-विचार भारतवासियों को अखर रहा था। मजुमदार, वही, पृ. 63 । देखो वही, पृ. 638 भी । 'विक्रमादित्य ने शकों को निकाल भगाया एवं राजा बन गया, जिसके पश्चात् उसने अपना ही युग याने सम्वत् प्रवर्तन किया ।'-कोनोव, वही और वही स्थान । 4. शार्पटियर, वही और वही स्थान । 5 ततश्चतुथ्यां क्रियतांनपेण, विज्ञप्तमेयं गुरूणा नुमेने :-कालकाचार्य-कथानक, गा. 54, पृ. 5 । देखो श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 76 । जैसा कि क्लाट कहता है इसका समर्थन तपागच्छ पट्टावली से भी होता है (इण्डि. एण्टी., पुस्त. 9, पृ. 251) । पक्षान्तर में खरतरगच्छ पट्टावली में कहा है कि कालक जिनने पर्दूषणा पर्व तिथि में परिवर्तन किया, वीरात् 993 में हुए और यह कि इनके पूर्व इसी नाम के दो प्राचार्य और हो चुके थे जिनमें से एक वीरात् 453 में हुए और यही गर्दीमल्ल ने सम्बन्धित थे।'-इण्डि, एण्टी., पुस्त. 11, पृ. 247 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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