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________________ जब उत्तर-भारत में (उज्जैन मे या पाटलीपुत्र से) चन्द्रगुप्त राज्य कर रहा था, श्रुतकेवली भद्रबाहु ने कि जो उस समय जैनों के एक युग प्रधान आचार्य द्ववादशवर्षी भीषण दुष्काल की भविष्यवाणी की थी। इस भविष्य कथन के परिणामस्वरूप जैनों का एक बड़ा समूह (संख्या में लगभग 12000), दक्षिण को प्रस्थान कर गया जहां उनमें से भद्रबाहु सहित अनेक संलेखना व्रत लेकर काल कर गए। यह घटना मैसूर राज्य के श्रवणवेल्गोल में घटी। चन्द्रगुप्त जो कि संघ के साथ ही उधर गया था सब कुछ त्याग कर वारह वर्ष तक अपने देवलोक प्राप्त गुरूभद्रबाहु की चरणचिन्हों की पूजा करता हुआ बेल्गोल में ही टिका रहा (?) और अन्त में वह भी संलेखना करके दिवंगत हुआ। उक्त सार में कोष्ठक एवम् प्रश्न चिन्हांकित वाक्य एक ही दन्तकथा की भिन्न भिन्न प्रावृत्तियों का संकेत करते हैं कि जो मूलतः साम्य रखती है परन्तु अप्रमुख विवरण में भिन्न भिन्न है। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के आविर्भाव के साथ इस कथा का सम्बन्ध यह हम पहले ही देख चुके हैं। श्वेताम्बर इसे स्वीकार नहीं करते हैं यद्यपि बारहवर्षी दुःकाल की बात स्वीकार करते हुए ही वे कहते हैं कि चन्द्रगुप्त की राजधानी में रहते हुए प्राचार्य सुस्थित को अपने गण को अन्य प्रदेश में भेजने की अवश्य ही आवश्यकता हुई थी। इस दन्तकथा में हमारी दिलचस्पी इतनी है कि इससे प्रकट होता कि चन्द्रगुप्त जैन था । इसको सूक्ष्म निरीक्षा दणिण-भारत में जैनधर्म के विद्यार्थी का ही काम है न कि हमारा । फिर भी यहाँ यह कह देना उचित होगा कि इसकी विवेचना मैसूर-निवासी नरसिंहाचार, फ्लीट प्रादि विद्वानों ने विस्तार के साथ की हैं । इस दन्तकथा का प्रथम साहित्यक रूप हरिषेण की वहत्कथाकोश जो कि ई. पन् ) 31 लगभग का है, में मिलता है। श्रवणबेल्गोल का शिलालेख जिसका समय अनुमानतः ई. सन् 600 अबका गया है, वही इस सारी दन्तकथा का मूल आधार है। अनेक प्रतिष्ठित और प्रमाणभूत आधुनिक विद्वान इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि इस दन्तकथा के आधार पर चन्द्रगुप्त जैन तो बिना किसी जोखम के ही जा सकता है। 'जैनशास्त्र (ई. पूर्वी सदी) और परवर्ती जैन शिलालेख', डा. जायसवाल कहते हैं कि, 'चन्द्रगुप्त को जैन राजर्षि रूप में उल्लेख करते हैं । मेरा अध्ययन जैनग्रन्थों के ऐतिहासिक तथ्यों का सम्मान करने को बाध्य करता है, और मैं ऐसा कोई कारण नहीं देखता कि हम जैनों के इस दावे को क्यों स्वीकार नहीं कर ले कि चन्द्रगुप्त ने अपने राज्य के अन्तिम दिनों में जैनधर्म स्वीकार कर लिया था और राजपाट त्याग दिया था और जैन मुनि की रूप में ही दिवंगत हुआ था । ___ डा. स्मिथ कि जिनने अन्ततः इसी विचार को मान्य किया है, कहते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य का घटनापूर्ण राज्यकाल किस प्रकार से समाप्त हुग्रा उस की सीधी और एक मात्र साक्षी जैन दन्तकथा ही है । जैनी इस महान् सम्राट को बिंबसार जैसा ही जैन मानते हैं और इस मान्यता में अविश्वास करने का कोई भी पर्याप्त कारण नहीं 1. देखो हेमचन्द्र, वही, श्लो. 377-378 । स्थविरों की सूची में सुस्थित का नाम स्थूलभद्र के बाद आता है जो कि जनसंघ के आठवें युगप्रधानाचार्य थे। देखो याकोबी, सेबुई., पुस्त. 22, पृ. 287-288 । 2. नरसिंहाचार, वही, प्रस्ता. प. 36-42; फ्लीट, इण्डि., एण्टी., पुस्त. 2-1, पृ. 156-160।3....वृहत्कथाकोश, ई. 931 की हरिषेण की संस्कृत रचना, कहता हैं कि भद्रबाहु, अन्तिम श्रुतकेली, का शिष्य राजा चन्द्रगुप्त था ।' नरसिंहाचार, वही, प्रस्ता. १. 37 । देखो राइस, ल्यूइस, वही. पृ. 4। । 4. देखो नरसिंहाचार, वही, प्रस्ता. पृ. 39; वही, अनुवाद, पृ. 1-2; राइस, ल्यूइस, वही, पृ. 3-4 । 5. जांयसलवाल, बिउप्रा पत्रिका, सं. 1, पृ. 452 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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