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________________ आधार पर सत्य है । उन्होने जैन दर्शन के 'नयवाद' का अपेक्षा से अन्य दशना क सिद्धांतों की सापेक्षिक सत्यता का दर्शन कराया। उनकी इस दृष्टि का कुछ प्रभाव समंतभद्र की 'आप्तमीमांसा' पर भी देखा जाता है। उन्होंने यह बताया कि वेदांत (औपनिषदिक वेदांत) संग्रहनय से बौद्ध दर्शन का क्षणिकता का सिद्धांत ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से तथा न्याय-वैशेषिक दर्शनों के सिद्धांत व्यवहारनय की अपेक्षा से सत्य प्रतीत होते हैं। यही दृष्टि आगे चलकर समत्वयोगी आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों में भी विकसित हुई। जैन दार्शनिकों में सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रंथों में अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने बत्तीस द्वात्रिंशिकाएं लिखी हैं, उनमें नवीं में वेदवाद, दसवीं में योगविद्या, बारहवीं में न्यायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवीं में नियतिवाद की चर्चा है, किंतु सिद्धसेन ने यह विवरण समीक्षात्मक दृष्टि से ही प्रस्तुत किया है। वे अनेक प्रसंगों में इन अवधारणाओं के प्रतिचुटीले व्यंग्य भी कसते हैं। फिर भी वस्तुत: जैन दार्शनिकों में अन्य दर्शनों के जानने और उनका विवरण प्रस्तुत करने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई थी, उसका मूल आधार विरोधी मतों की एकांतवादिता निराकरण करना ही था। सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं हैं। साथ ही पंडित सुखलालजी संघवी का यह भी कहना है कि सिद्धसेन की कृतियों में अन्य दर्शनों का जो विवरण उपलब्ध है, वह भी पाठ-भ्रष्टता और व्याख्या के अभाव के कारण अधिक प्रामाणिक नहीं है। यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर, समंतभद्र, जिनभद्रगणि आदि हरिभद्र केपूर्ववर्ती दार्शनिकों ने अनेकांत दृष्टि के प्रभाव के कारण वैचारिक उदारता का भी परिचय दिया है। फिर भी ये सभी विचारक इतना तो मानते ही हैं कि अन्य दर्शन एकांतिक दृष्टि का आश्रय लेने के कारण मिथ्या-दर्शन हैं, जबकि जैन दर्शन अनेकांत दृष्टि अपनाने के कारण सम्यक्दर्शन है। वस्तुत: वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस ऊंचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कृतियों में किया है, वैसा उनके पूर्ववर्ती जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता है। यद्यपि हरिभद्र के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचंद्र, यशोविजय, आनंदघन आदि - अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति-समभाव और उदारता का परिचय देते हैं। उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती है। उदाहरण के रूप में हेमचंद्र अपने महादेव-स्त्रोत (44) में निम्नश्लोक प्रस्तुत करते हैं - भवबीजांकुरजननारागाद्या क्षयमुपागतायस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै॥ यह श्लोक हरिभद्र के लोकतत्त्वनिर्णय में भी कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध होता है। यथा - भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान/5 For Private & Personal Use Only Jain Education International ___www.jainelibrary.org
SR No.003248
Book TitleBhartiya Darshan ko Jain Darshaniko ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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