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________________ के अनुयायी भी पाये जाते हैं- जैसे ओसवालों में श्वेताम्बरमूर्तिपूजक, स्थानकवासी और तेरपंथी - इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी तो प्रचुरता से पाये ही जाते हैं किन्तु क्वाचित् दिगम्बर जैन और वैष्णव धर्म के अनुयायी भी मिलते हैं । जातिवाद का विष 1 डा. विलास आदिनाथ संगवे ने अपनी पुस्तक 'जैन कम्युनिटी' में उत्तर भारत की 84 तथा दक्षिण भारत की 91 जैन जातियों का उल्लेख किया है। पुराने समय में तो इन जातियों में पारस्परिक भोजन- व्यवहार सम्बन्धी कठोर प्रतिबन्ध थे । विवाह सम्बन्ध तो पूर्णतया वर्जित थे । आज खान-पान ( रोटी - व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध तो शिथिल हो गये हैं, किन्तु विवाह (बेटी व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध अभी भी यथावत् है । आश्चर्य तो यह है कि आज भी एक जाति का जैन परिवार अपनी जाति वैष्णव परिवार में तो विवाह - सम्बंध धार लेगा, किन्तु इतर जाति के जैन परिवार में विवाह - स ह - सम्बन्ध करना उचित नहीं समझेगा । विगत दो दशकों में हिन्दू खटिक एवं गुजराती बलाईयों के द्वारा जैनधर्म अपनाने के फलस्वरूप वीरवाल और धर्मपाल नामक जो दो नवीन जैन जातियाँ अस्तित्व में आई हैं, किन्तु उनके साथ भी पारस्परिक सामाजिक एकात्मता का अभाव ही है । जैन जातियों में पारस्परिक अलगाव की यह स्थिति उनकी भावनात्मक एकता में बाधक है। हमारा बिखराव दोहरा है - एक जातिगत और दूसरा सम्प्रदायगत । जब तक इन जातियों मे परस्पर विवाह-सम्बन्ध और समानस्तर की सामाजिक एकात्मता स्थापित नहीं होगी तब तक भावनात्मक एकता को स्थायी आधार नहीं मिलेगा। अनेक जातियों में जो दसा और बीसा का भेद है और उस आधार पर या सामान्यरूप में भी जातियों को एक दूसरे से ऊँचा - नीचा समझने की जो प्रवृत्ति है, उसे भी समाप्त करना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में चाहे इन जातिगत विभिन्नताओं को मिटा पाना सम्भव नहीं हो, किन्तु उन्हें समान स्तर की सामाजिकता तो प्रदान की जा सकती है । यदि समान स्तर की सामाजिकता और पारस्परिक विवाह सम्बन्ध स्थापित हो जायें तो जातिवाद की ये दीवारें अगली दो चार सीढ़ियों तक स्वतः ही ढह जायेंगी। जैनधर्म मूलत: जातिवाद एवं ऊँच-नीच का समर्थक नहीं रहा है, यह सब उस पर ब्राह्मण संस्कृति का प्रभाव है । यदि हम अन्तरात्मा से जैनत्व के हामी हैं तो हम ऊँच-नीच और जातिवाद की इन विभाजक दीवारों को समाप्त करना होगा, तभी भावतात्मक सामाजिक एकता का विकास हो सकेगा । Jain Education International जैन एकता का प्रश्न : २ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003245
Book TitleJain Ekta ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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