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________________ विद्वता का आभास हो जाता है । अतः हम यह कह सकते हैं कि जैनधर्म में उसके अतीत से लेकर वर्तमान तक नारी की आर विशेष रूप से भिक्षुणियों की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही ह । जहाँ एक आर जैनधर्म ने नारी को सम्मानित और गौरवान्वित करते हुए, उसके शील संरक्षण का प्रयास किया और उसके आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया, वहीं दूसरी ओर बाह्मी, सुन्दरी और चन्दना से लेकर आज तक की अनेकानेक सतीसाध्वियों ने अपने चरित्रबल तथा संयम साधना से जैनधर्म की ध्वजा को फहराया ह । विभिन्न धर्मों में नारी की स्थिति की तुलना - (1) हिन्दू धर्म और जैनधर्म :- हिन्दू धर्म में वैदिक युग में नारी की भूमिका धार्मिक और सामाजिक दानों ही क्षेत्रों में महत्वपूर्ण मानी जाती थी और उसे पुरूष के समकक्ष समझा जाता था। स्त्रियों के द्वारा रचित अनेक वेद ऋचाएँ और यज्ञ आदि धार्मिक कर्मकाण्डों में पत्नी की अनिवार्यता, निश्चय ही इस तत्त्व की पोषक हैं। मनु का यह उद्घोष कि "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः " - अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता रमण करते हैं, इसी तथ्य को सूचित करता है कि हिन्दूधर्म प्राचीनकाल से नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, इन सबके अतिरिक्त भी देवीउपासना के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, महाकाली आदि देवियों की उपासना भी इस तथ्य की सूचक ह कि नारी न केवल उपासक ह अपितु उपास्य भी हैं । यद्यपि वैदिक युग से लेकर तंत्रयुग प्रारम्भ तक नारी की महत्ता के अनेक प्रमाण हमें हिन्दूधर्म में मिलते ह किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी है कि स्मृति युग से ही उसमें क्रमश: नारी के महत्व का अवमूल्यन होता गया । स्मृतियों में नारी को पुरूष के अधोन बनाने का उपक्रम प्रारम्भ हो गया था और उनमें यहाँ तक कहा गया कि नारी को बाल्यकाल में पिता के अधीन, युवावस्था में पति के अधीन और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रह कर ही अपना जीवन जीना होता है। इस प्रकार वह सदैव ही पुरूष के अधीन ही ह, कभी भी स्वतन्त्र नहीं ह । स्मृतिकाल में उसे सम्पत्ति के अधिकार से भी वंचित किया गया और सामाजिक जीवन में मात्र उसके दासी या भोग्या स्वरूप पर ही बल दिया गया। पति की सेवा को ही उसका एकमात्र कर्तव्य माना गया । यह विडम्बना ही थी कि अध्ययन के क्षेत्र में भी वेद ऋचाओं की निर्मात्री Jain Education International जैन धर्म में नारी की भूमिका : 36 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003244
Book TitleJain Dharm me Nari ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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