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________________ भिक्षुणियों की शील सुरक्षा के लिये आवश्यक होने पर भिक्षु उन मनुष्यों की भी हिंसा कर सकता था जो उसके शील को भंग करने का प्रयास करते थे । यहाँ तक कि ऐसे अपराध प्रायश्चित्त योग्य भी नहीं माने गये थे। भिक्षुणियों को कुछ अन्य परिस्थितियों में भी इसी दृष्टि से भिक्षुओं के सान्निध्य में निवास करने की भी अनुमति दे दी गयी थी, जैसे- भिक्षु - भिक्षुणी यात्रा करते हुए किसी निर्जन गहन वन में पहुँच carriaो नगर में अथवा देवालय में ठहरने के लिए अन्यत्र कोई स्थान उपलब्ध न हो रहा हो अथवा उन पर बलात्कार एवं उनके वस्त्र - पात्रादि के अपहरण की सम्भावना प्रतीत होती हो। इसी प्रकार विक्षिप्त चित्त अथवा अतिरोगी भिक्षु की परिचर्या के लिए कोई भिक्षु उपलब्ध न हो तो भिक्षुणी उसकी परिचर्या कर सकती थी । भिक्षुओं के लिए भी सामान्यतया भिक्षुणी का स्पर्श वर्जित था किन्तु भिक्षुणी के कीचड़ में फँस जाने पर, नाव में चढ़ने या उतरने में कठिनाई अनुभव करने पर अथवा जब उसकी हिंसा अथवा शीलभंग के प्रयत्न किये जा रहे हो तो ऐसी स्थिति में भिक्षु भिक्षुणी का स्पर्श कर उसे सुरक्षा प्रदान कर सकता था । जैन परम्परा में आचार्य कालक की कथा इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। भिक्षुणी के शील की सुरक्षा को जैन भिक्षु संघ का अनिवार्य एवं प्रथमिक कर्तव्य माना गया था । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में नारी की शील की सुरक्षा के लिए पर्याप्त सतर्कता रखी गई थी। मात्र यही नहीं, जैनाचार्यों ने अपनी दण्ड- व्यवस्था और संघ व्यवस्था में भी नारी की प्रकृति को सम्यक् रूप से समझने का प्रयत्न किया है। पुरूषों के बलात्कारों और अत्याचारों से पीड़ित नारी को उन्होनें दुत्कारा नहीं अपितु उसके समुद्धार का प्रयत्न किया । जैन दण्डव्यवस्था में उन भिक्षुणियों के लिये किसी प्रकार के दण्ड की व्यवस्था नहीं की गई थी, जो बलात्कार की शिकार होकर गर्भवती हो जाती थी, अपितु उनके और उनके गर्भस्थ बालक के संरक्षण का दायित्व संघ का माना गया था । प्रसवोंपरान्त बालक के बड़ा हो जाने पर वे पुनः भिक्षुणी हो सकती थी। इसी प्रकार वे भिक्षुणियाँ भी जो कभी वासना के आवेग में बहकर चारित्रिक स्खलन की शिकार हो जाती थी, तिरस्कृत नहीं कर दी जाती, अपितु उन्हें अपने को सुधारने का अवसर प्रदान किया जाता था । इस तथ्य के सर्मथन में यह कहा गया कि क्या बाढ़ से ग्रस्त नदी पुनः अपने मूल मार्ग पर नहीं आ जाती है ? जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था में भी स्त्रियों या भिक्षुणियों के लिए परिहार और पाराञ्चिक (निष्कासन) Jain Education International जैन धर्म में नारी की भूमिका :34 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003244
Book TitleJain Dharm me Nari ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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