SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण यहाँ तक कहने लगे थे कि बिना विवाह किये अर्थात परिगृहीत किये यदि कोई स्त्री कामवासना की आकांक्षा करती है तो उसके साथ सम्भोग करने में कोई पाप नहीं है। ज्ञातव्य है पार्श्व कि परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह के अधीन माना गया था क्योंकि उस युग में नारी को भी सम्पत्ति माना जाता था, चूँकि ऐसी स्थिति में अपरिग्रह के व्रत का भंग नहीं था इसलिये शिथिलाचारी श्रमण उसका विरोध कर रहे थे। यही कारण था कि भ.महावीर ने ब्रह्मचर्य को जोड़ा था। चूँकि वेश्या या गणिका परस्त्री नहीं थी, अत: परस्त्री-निषेध के साथ स्वपत्नी संतोष व्रत को भी जोड़ा गया और उसके अतिचारों में अपरिगृहीतागमन को भी सम्मिलित किया गया और कहा गया कि गृहस्थ उपासक को अपरिगृहित (अविवाहित) स्त्री से सम्भोग नहीं करना चाहिये । पुन: जब यह माना गया कि परिग्रहण के बिना सम्भोग सम्भव नहीं, साथ ही द्रव्य देकर कुछ समय के लिये गृहीता वेश्या भी परिगृहीत की कोटि में आ जाती हैं, तो परिणामस्वरूप धनादि देकर अल्पकाल के लिए गृहीता स्त्री (इत्वरिका) के साथ भी सम्भोग का निषेध किया गया और गृहस्थ उपासक के लिए आजीवन हेतु गृहीता अर्थात् विवाहित स्त्री के अतिरिक्त सभी प्रकार के यौन सम्बन्ध निषिद्ध माने गये। जैनाचार्यों में सोमदेव (10 वीं शती) एक ऐसे आचार्य थे, जिन्होने श्रावक के स्वपत्नी संतोष व्रत में, वेश्या को उपपत्नी मानकर उसका भोग राजा और श्रेष्ठी वर्ग के लिए विहित मान लिया था किन्तु यह एक अपवाद ही था। यद्यपि आगामों एवं आगमिक व्याख्याओं से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्य सभी लोगों के साथ जैनधर्म के प्रति श्रद्धावान सामान्यजन भी किसी न किसी रूप में गणिकाओं से सम्बद्ध रहा है। आगामों में उल्लेख है कि कृष्ण वासुदेव की द्वारिका नगरी में अनंगसेना प्रमुख अनेक गणिकाएँ भी थीं । स्वयं ऋषभदेव के नीलांजना का नृत्य देखते समय उसकी मृत्यु से प्रतिबोधित होने की कथा दिगम्बर परम्परा में सुविश्रुत है। कुछ विद्वान मथुरा में इसके अंकन को भी स्वीकार करते हैं । ज्ञाता आदि में देवदत्ता आदि गणिकाओं की समाज में सम्मानपूर्ण स्थिति की सूचना मिलती है। समाज के सम्पन्न परिवारों के लोगों के वेश्याओं से सम्बन्ध थे, इसकी सूचना आगम, आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन पौराणिक साहित्य में विपुल मात्रा में उपलब्ध है। कान्हड कठिआरा और स्थूलभद्र के आख्यान सुविश्रुत हैं ,किन्तु इन सब उल्लेखों से यह मान लेना कि जैन धर्म में नारी की भूमिका :2: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003244
Book TitleJain Dharm me Nari ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy