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________________ ( 2 ). स्त्री करूणा प्रधान है उसमें तीव्रतम क्रूर अध्यवसायों का अभाव होता है अतः निम्नतम गति सातवें नरक में जाने के अयोग्य होती है। जैनाचार्यों की इस उदार और मनोवैज्ञानिक मान्यता के आधार पर दिगम्बर परम्परा ने यह मान लिया कि तीव्र पुरूषार्थ के अभाव में जो निम्नतम गति में नहीं जा सकती, वह उच्चतम गति में भी नहीं जा सकती । अतः स्त्री की मुक्ति सम्भव नहीं । ( 3 ) . यह भी कहा गया है कि चंचल स्वभाव के कारण स्त्रियों में ध्यान की स्थिरता नहीं होती है, अत: वे आध्यात्मि विकास की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकतीं । (4). एक अन्य तर्क यह भी दिया गया हैं कि स्त्री में वाद सामर्थ्य एवं तीव्र बुद्धि के अभाव के कारण ये दृष्टिवाद के अध्ययन में अयोग्य होती हैं अत: वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकती ।. यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा ने भी उन्हें बौद्धिक क्षमता के कारण दृष्टिवाद, अरूणोपपात, निशीथ आदि के अध्ययन के अयोग्य अवश्य माना फिर भी उनमें 'मोक्षप्राप्ति' की क्षमता को स्वीकार किया गया । चाहे शारीरिक संरचना के कारण इसके लिए संयम-साधना के उपकरण के रूप में वस्त्र आवश्यक हों किन्तु आसक्ति के अभाव के कारण वह परिग्रह नहीं हैं, अतः इसमें प्रव्रजित होने एवं मुक्त होने के सामर्थ्य हैं । 39 यहाँ हमें स्मरण रखना चाहिए कि मुनि के अचेलकत्व ( दिगम्बरतत्व ) की पोषक यापनीय-परम्परा ने स्त्री-मुक्ति और पंच महाव्रत आरोपण रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र (स्त्री-दीक्षा) को स्वीकार किया है। उससे विकसित द्राविड, काष्ठा और माथुर संघों में भी स्त्री-दीक्षा (महाव्रतारोपण) को स्वीकार किया गया है । यद्यपि इस कारण वे मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा की आलोचना के पात्र भी बने और उन्हें जैनाभास तक कहा गया। इससे स्पष्ट है न केवल श्वेताम्बरों ने अपितु दिगम्बर परम्परा के अनेक संघों ने भी स्त्री-मुक्ति और स्त्री-दीक्षा को स्वीकार करके नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया था । 40 यह निश्चित ही सत्य है कि आगमिक काल के जैनाचार्यों ने न केवल स्त्रीमुक्ति और दीक्षा को स्वीकार किया अपितु मल्लि को स्त्री तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करके यह भी उद्घोषित किया कि आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च पद की अधिकारी नारी भी हो सकती | स्त्री तीर्थंकर की अवधारणा जैनधर्म की अपनी एक विशिष्ट अभागा है जो गरी की गरिमा को पटन करती है। Jain Education International जैन धर्म में नारी की भूमिका : 12 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003244
Book TitleJain Dharm me Nari ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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