SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ rvasna लोकविजय ...... nrnwrnNANnnnnnnion.. .................noarne, oranonrnmen' NRNAMAHAMANNA0Annnnn - - . जरा विचार तो करो ! संसार में सब सुख ही चाहते हैं और सब के सब सुख के पीछे ही दौड़ते हैं । इतने पर भी जगत में सर्वत्र अंधा, बहरा, गंगा, काना, तिरछा. कूबडा, काला. कोढ़ी होने के दुःख देखे जाते हैं, वे सब दुख विषयसुख में लगे रहने वाले मनुष्यों को अपनी आसक्तिरूप प्रमाद के कारण ही होते हैं । ऐसा सोचकर बुद्धिमान सावधान रहे । अज्ञानी मनुष्य ही विषयसुखों के पीछे पड़कर अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। [७७-७८ ] मैंने ऐसा किया है और आगे ऐसा ऐसा करूंगा' इस प्रकार से मन के घोड़े दौड़ाने वाला वह मायावी मनुष्य अपने कर्तव्यों में मूढ़ होकर बारबार लोभ बढ़ा कर खुद अपना ही शत्रु बन जाता है । उस सुखार्थी तथा चाहे जो बोलने वाले और दुख से मूढ़ बने हुए मनुष्य की बुद्धि को सब कुछ उल्टा ही सूझता है । इस प्रकार व अपने प्रमाद से अपना ही नाश करता है । [१४-१७] ____काम (इच्छाएँ) पूर्ण होना असम्भव है और जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता । काम भोगों का इच्छुक मनुष्य शोक करता रहता है और चिन्तित रहता है। मर्यादाओं का लोप करता हुआ वह अपनी कामासक्ति और मोह के कारण दुखी रहता है और परिताप को प्राप्त होता है । जिसके दुख कभी नाश नहीं होते ऐसा वह मूढ़ मनुष्य दुख के चक्कर में भटकता रहता हैं । [१२, ८ ] भोग से तृष्णा का शमन कभी नहीं होता । वे तो महाभय रूप हैं और दुखों के कारण हैं । इसलिये उनकी इच्छा छोड़ दो और उनके लिये किसी को दुख न दो । अपने को अमर के समान समझने वाला जो मनुष्य भोगों में अत्यन्त श्रद्धा रखता है, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy