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वैष्णव सनातनियों की मान्यता जैनों से एकदम उल्टी है । ये अरूपी शाश्वत ईश्वर को शरीरधारण करके जगतीतल पर अवतरित होना मानते हैं । जैन (आर्हत्) लोग मानव शरीर में ही रहते हुए वीतरागी, केवल-दर्शन, केवल-ज्ञान प्राप्त करने वाले सर्वज्ञ को रूपी ईश्वर तथा पश्चात् आयु की समाप्ति के अवसर पर सर्व-कर्मक्षय करके शरीर रहित सिद्धावस्था में ईश्वर को अरूपी मानते हैं। अतः जनदर्शन रूपी ईश्वर से अरूपी ईश्वर होना मानता है।
दूसरी बात यह है कि जैनों के सिवाय अन्य वर्शनों में से किसी ने भी आत्मा को स्वतंत्र तत्त्व नहीं माना है। यदि किसी ने माना भी है तो भी आत्मा के कर्म बन्धनों से छुटकारा पाने पर ईश्वरत्त्व प्राप्त करने का कोई विधान नहीं है । अवतारवादियों ने तो विष्णु शिव, ब्रह्मा, राम, कृष्ण आदि की भक्ति कीर्तन आदि से जीव की जो मुक्ति मानी है; उससे जीव को वैकुण्ठ तक ही जाना माना है जो उस अरूपी सृष्टिकर्ता ईश्वर से बराबरी का दर्जा नहीं है परन्तु कम दर्जा माना है। आर्यसमाजी तो वैकुष्ठ में गए हुए जीव को संसार में वापिस लौट आना मानते हैं । जन्ममरण के चक्र में पुनः उलझ जाना मानते है।।
विचारणीय बात है किजिस स्थान पर जाना हो यदि वहां पहुंचने का रास्ता मालूम न हो तो ऐसी परिस्थिति में हम किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करते हैं 1-जो हमारे गंतव्य स्थान का मार्ग जानता हो अथवा ऐसे व्यक्ति से मार्गदर्शन लेंगे जो वहां स्वयं जा चुका हो। इन दोनों में से भी हमारे लिए कौन सा व्यक्ति लाभदायक होगा ? यह सोचना होगा । एक स्वयं तो नहीं गया परन्तु मार्ग बतलाता है। दूसरा स्वयं जाकर मार्ग का साक्षात् अनुभव कर मार्ग बतलाता हैं । दोनों में से हम किस व्यक्ति के बतलाये हुए मार्ग का अनुसरण करेंगे? स्पष्ट है कि हमारे लिये अधिक विश्वसनीय और हितकारक होगा कि हम दूसरे व्यक्ति के बतलाये हुए मार्ग का अनुसरण करें क्योंकि उसने स्वयं जाकर उस मार्ग को देखा है।
हमने भी आत्मा को सर्व कर्म रहित करके मोक्ष प्राप्त करना है । परन्तु हमें मार्ग मालूम नहीं है । ऐसी परिस्थिति में यहाँ भी मार्ग दर्शक के दो प्रकार हैं एक तो ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने स्वयं उस मार्ग का अवलम्बन नहीं लिया और दूसरे जिन्होंने स्वयं उस मार्ग का अवलम्बन लेकर सही मार्ग प्राप्त किया है तत्पश्चात् जनता-जनार्दन के सम्मुख उसे बतलाया है। 1-पहले मार्गदर्शक ऐसे ईश्वर हैं जिन्होंने स्वयं इस मार्ग का आलम्बन नहीं लिया तथापि जनता जनार्दन को मार्ग दर्शन कराते हैं। किन्तु जो इस मार्ग के पथगामी नही हैं उन का मार्गदर्शन विश्वसनीय होना संभव कैसे माना जा सकता है ? इनमें अवतारवाद, एक नित्य अरूपी ब्रह्मवाद अथवा अरूपी सृष्टिकर्ता ईश्वरवाद का समावेश है 2-दूसरे जिन्होंने
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