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________________ 206 प्रभु महावीर के हस्त दीक्षित शिष्य श्री धर्मदास गणि के कहा है कि . "निक्खमण नाण निव्वाण जम्म भुमिओ वंदइ जिणाणं । ण य वसइ साहुजण विरहियम्मि देसे बहु गुणे वि ॥235॥ अर्थ-जिनेश्वर प्रभु की दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण और जन्मकल्याणक भमियों को श्रावकादि वन्दन करें। तथा अन्य बहुत गुण होते हुए भी साधु के विहार रहित देश में निवास नहीं करे । जिनमंदिर आदि जिनप्रतिमा की साक्षी में "तिहि नक्खत्त मुहत्त रवि-जोगाइ य पसंत दिवसे अप्पा वोसिरामि । जिणभवनाई पहाण खिते गुरु वदित्ता भणइ इच्छकारि-तुह अम्हं पंच महन्वयाइं राइमोयणं वेरमणं-छट्ठाइ आरोवावणि (सिरि अग चूलिया सुत्ते)। अर्थात्-शुभ तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त रवियोग आदि प्रशस्त दिन में आत्मा को "पापों से बोसरावे । जिनमंदिर आदि प्रधान क्षेत्र में गुरु को वन्दना करके कहे कि हे कृपानाथ ! कृपा करके आप मुझे पांच महाव्रत तथा छठा रात्रि भोजन विरमण (दोनों) से आरोपन करें यानि जनश्रमण की दीक्षा देवें। जैन दर्शन ईश्वर को जगतकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं करता। इससे यह प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर ईश्वर की पूजा करने से क्या लाभ ? ईश्वर जब वीतराग है, वह तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होता तब उसको पूजने का क्या प्रयोजन ? परंतु जैनदर्शन का यह कहना है कि परमेश्वर की उपासना उसे प्रसन्न करने के लिए नहीं है किंतु अपने हृदय की, चित्त की शुद्धि केलिए एव उनके समान बनने केलिए, सभी दुःखों के उत्पादकों राग-द्वेष को दूर करने के लिए; राग-द्वेष रहित वीतराग परमात्मा का आलम्बन लेना परम आवश्यक, परम उपयोगी एवं लाभदायक है। __ भाव मन स्फटिक जैसा है। जिस प्रकार स्फटिक के पास जैसे रंग की वस्तु रखी जायेगी, स्फटिक वैसा रंग अपने में धारण कर लेगा। ठीक जैसे ही जैसे संयोग मिलते हैं वैसे ही संस्कार शीघ्र उत्पन्न हो जाते हैं । अतः उत्तम-पवित्र संस्कार प्राप्त करने केलिए उसी प्रकार के व्यक्ति के सनिध्य में रहने की विशेष आवश्यकता रहती है। वीतराग-सर्वज्ञ देव का स्वरूप परम निर्मल और शांतिमय है । राग-द्वेष का तनिक सा भी प्रभाव उनके स्वरूप में विल्कुल नहीं है । अतः उनकी संगत-आलम्बन से, उनकी पूजा-अर्चा करने से अपनी आत्मा में वीतरागता का संचार होता है। इसलिए कहा जाता है कि जैसी संगत वैसी रंगत। अत: वीतराग सर्वज्ञदेव की संगत, उनकी पूजा, जाप, कीर्तन, स्तवन, स्मरण करना होता है। इससे आत्मा ने ऐसी शक्ति पैदा होती है कि राग-द्वेष की वृत्तियां स्वयमेव शांत होने लगती हैं। यह ईश्वर पूजन का मुख्य व तात्विक फल है। अतः वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा के अभाव में उनकी मूर्ति के माध्यम से ही उनकी उपसना संभव हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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