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________________ प.पू.आ. श्री विजयहेमचंद्रसूरिजी म.सा. के शिष्यरत्न मुनिराज श्री संयमबोधिविजयजी म.सा. ने की है । वंदित्तु सूत्र (श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र) वंदित्तु सव्वसिद्धे, (अर्थ) सर्व (अरिहंतों को), सिद्ध भगवंतो को, धर्माचार्यों (अ शब्द से धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ । उपाध्यायों) और सर्व साधुओं को वंदन करके श्रावक धर्म में लगे हुए अतिचारों इच्छामि पडिक्कमिउं, का प्रतिक्रमण करना (व्रतों मे लगी हुई मलिनता को दूर करना चाहता हुँ । सावगधम्माइआरस्स ||१|| जो मे वयाइयारो, नाणे तह दंसणे चरिते अ । सुमो अ बायरोवा, तं निंदे तं च गरिहामि ||२|| दुविहे परिग्गहम्मि, सावज्जे बहुविहे अ आरंभे । कारावणे अकरणे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ||३|| जं बद्धमिंदिएहिं, चउहिं कसाएहिं अप्पसत्येहिं रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ||४|| आगमणे निग्गमणे, ठाणे चंकमणे अणाभोगे । अभिओगे अ निओगे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ||५|| संका कंख विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु । सम्मत्तस्स-इआरे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ||६|| मुझे व्रतों के विषय में तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र (अ शब्द से तपाचार, वीर्याचार, संलेखना तथा सम्यक्त्व) की आराधना के विषय में सूक्ष्म या बादर (छोटा या बड़ा) जो अतिचार लगा (व्रतमें स्खलना या भूल हुई) हो, उसकी • (आत्मसाक्षी से) निंदा करता हूँ और (गुरूसाक्षी से) गर्हा करता हुँ । सचित्त व अचित्त (अथवा बाह्य अभ्यंतर) दो प्रकार के परिग्रह के कारण, पापमय अनेक प्रकार के आरंभ (सांसारिक प्रवृत्ति) दुसरे से करवाते हुए और स्वयं करते हुए (तथा करते हुए की अनुमोदना से) दिवस संबंधी (सुबह के प्रतिक्रमण में रात्रि संबंधी) छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों उन सबसे मैं निवृत्त होता हुँ । अप्रशस्त (अशुभ कार्य में प्रवृत्त बनी हुई) इन्द्रियों से, चार कषायों से (तीन । योगों) तथा राग और द्वेष से, जो (अशुभ कर्म) बंधा हो, उसकी मैं निंदा करता हुँ, उसकी मैं गर्हा करता हुँ । उपयोगशून्यता से, दबाव होने से अथवा नौकरी आदि के कारण आने में, जाने में, एक स्थान पर खडे रहने में व बारंबार चलने में अथवा इधर-उधर फिरने में दिवस संबंधी जो (अशुभकर्म) बंधे हो उन सबसे मैं निवृत्त होता हुँ । (अभियोग = दबाव राजा, लोकसमूह, बलवान, देवता, मातापितादि वडिलजन तथा अकाल या अरण्यमें फँसना वगैरह आपत्तियों से आया हुआ दबाव, नियोग=फर्ज) १) मोक्षमार्ग में शंका २) अन्यमत (धर्म) की इच्छा, क्रिया के फलमें संदेह या धर्मियों के प्रति जुगुप्सा (घृणा) ३) मोक्षमार्गमें बाधक अन्य दार्शनिकों की प्रशंसा व ४) उनका परिचय सम्यक्त्व विषयक अतिचारों में दिवस संबंधी लगे हुए अशुभ कर्मों की मैं शुद्धि करता हुँ । चित्र (समझ-) गाथा १ : प्रतिक्रमण के साररूप इस सूत्र के प्रारंभ में पंच परमेष्ठी को नमस्कार रूप मंगल किया जाता है। पंच परमेष्ठी को स्वयं की विशिष्ट मुद्रा में देखकर भाव से मस्तक झुकाकर "शुद्ध आलोचना (प्रायश्चित्त) करने का सामर्थ्य प्राप्त हो" वैसी प्रार्थना करनी । गाथा २ : देव-गुरू कृपा से प्राप्त हुए ज्ञान-दर्शन-चारित्र के योग व भावमें आयी हुई मलिनता दूर करके निर्मलता को प्राप्त करने का सम्यक्पुरुषार्थ, उसके लिए पार्श्वभूमिकामें अंधकार से उजाले की ओर गति बतायी गयी है । गाथा ३ : परिग्रह तथा आरंभ के प्रतीकों से पीछे हटते आत्मा को देखना । गाथा ४-५ : अनुपयोग और लापरवाही से जीवयुक्त या जीवरहित भूमि पर सकारण या निष्कारण आना, जाना, खड़े रहना व घुमना फिरना । घर व पीछे उद्यान के पास इन्सान देखिये । अभियोगमें राजा के आदेश को नतमस्तक स्वीकार करता सेवक है व नियोगमें रामचंद्रजी के आदेश से सीताजी को जंगलमें छोडकर अपने कर्तव्य को अदा करता हुआ कृतान्तवदन सेनापति दिखाया है । गाथा ६ : आलोक विषय में देव-गुरु के वचन पर व परलोक विषयमें मोक्ष, देवलोक व नरक जैसे स्थानों के प्रति शंका हो । अन्य धर्म के पवित्र स्थानों की चमत्कारिक बातें सुनकर मन आकर्षित हो वह कांक्षा, जिसमें प्रख्या हिंदु देवस्थान तथा चर्च दिखाये हैं। साधु के मलिन वस्त्र-गात्र देखकर मुंह मचोडता हुआ युवान है । और अन्य दर्शनियों के यज्ञ-यागादि क्रिया देखकर प्रभावित होकर उसकी ओर आकर्षित होते जीव है । 193
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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