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________________ संसार-दावानल सत्र १) संसार-दावानल-दाह-नीरं, अर्थ - १) संसार रुप दावानल (को शमाने) के लिए संमोहधूली-हरणे समीरं । नीर समान, अज्ञान (मोह) स्वरुप धूल को दूर करने मायारसा-दारण-सारसीरं, में पवन के समान, मायारुप पृथ्वी का विदारण करने नमामि वीरं गिरिसार धीरम् ।। में समर्थ (तीक्ष्ण) हल के समान, पर्वतों में श्रेष्ठ (मेरु) वत् निष्प्रकम्प श्री महावीर स्वामी को नमस्कार करता हूं | २) भावावनाम-सुर-दानव-मानवेन २) भक्तिभाव से प्रणाम करते हुए सुरेन्द्र-दानवेन्द्रचूलाविलोल-कमलावलि-मालितानि । मानवेन्द्र (सम्राट) के मुकुटों में रहे हुए चंचल कमलसंपूरिताभिनत-लोक-समीहितानि, . श्रेणि से सुशोभित (एवं) नमस्कार करनेवाले लोगों के कामं नमामि जिनराजपदानि तानि ।। वाञ्छित पूर्ण करनेवाले श्री जिनेश्वर देवों के प्रसिद्ध चरणों को अत्यन्त आदरपूर्वक नमस्कार करता हूं | ३) बोधागाधं सुपद-पदवी-नीरपूराभिरामं, ३) ज्ञान से अगाध, सुन्दर पदरचना रुप जल के जीवाहिंसा-विरललहरी-संगमागाह देहम् । उछलते प्रवाह से मनोहर, जीवों की अहिंसा रुप निरचूलावेलं गुरुगममणि-संकुलं दूर पारं, न्तर तरंगो के संबन्ध से गहरे (कठिनाई से प्रवेश योग्य) सारं वीरागमजलनिधिं सादरं साधु सेवे || देहवाले चूलिका रुप ज्वार (या तट) वाले, बड़े बड़े आलापक (पेराग्राफ) स्वरुप रत्नों से व्याप्त, दूर है किनारा जिसका ऐसे श्रेष्ठ महावीर-आगमरुप समुद्र की ४) आमूलालोल-धूली बहुल आदर सहित विधिपूर्वक उपासना करता हूं। परिमलालीढ-लोलालिमाला, ४) मूल पर्यन्त डोलते हुए, पराग-भरसक सुगन्ध में झंकारारावसारा-मलदलकमलागार आसक्त चपल भ्रमरों की श्रेणियों के झंकार शब्द से भूमिनिवासे । प्रधान व निर्मल पहुंडीवाले कमल स्वरुप गृहभूमि छायासंभारसारे वरकमलकरे पर निवासवाली, कान्तिपुञ्ज से शोभायमान, हाथ में तारहाराभिरामे, सुन्दर कमलवाली देदीप्यमान हार से मनोहर हे (जिनेन्द्र) वाणीसंदोहदेहे भवविरहवरं वचनों के समूह रुप देहवाली (श्रुत)देवी ! मुझे सारभूत देहि मे देवि ! सारं ।। मोक्ष-वरदान दें । (या मोक्षफल से श्रेष्ठ श्रुतसार दे)। समझ - (१) चित्र के अनुसार श्री वीर भगवान काया व वाणी से (i) जलवर्षा समान दिखाइ दे जिससे जीवों का संसार (कषाय) दावानल शान्त होता है, (ii) पवन समान दिखे जिससे मिथ्यामति रुप धूल ऊड जाती है (ii) तीक्ष्ण हल समान, जो मायारुप पृथ्वी को फाड़ देता है, (iv) मेरु समान धैर्यवाले दिखें । (२) अनन्त जिनराज के चरण दिखें जो नमस्कार करते हुए सुरेन्द्र-असुरेन्द्र-नरेश के मस्तक की चलित हुई कमलमाला से शोभित (चित्र में नमस्कार करते हए नरेश व माला की कमी है।) व वे नमन करते हुए लोगों के इष्ट के पूरक हैं । (३) चित्र में जो समुद्र दिखाया है यह वीर प्रभु के आगमशास्त्र है, वह बोध से गहरा सु-पदरचनारुप जलप्रवाहवाला, अहिंसा के सतत तरंगसंबन्ध से अगाध (दुष्प्रवेश्य), चूलिकारुप ज्वारवाला, बडे बडे आलापक रुप रत्नों से व्याप्त, दूर किनारेवाला है । उसकी उपासना सादर करता हूं यह भावना करनी चाहिये । (४) यहां वाग्देवी देख भवविरह-संसार अन्त की प्रार्थना करें । वह कमलघर-निवासी, कमल भी आमूल मूल से उडती । खूब सुगंध में लीन ऊडते भंवरों के झंकार ध्वनि से व्याप्त व निर्मल देखे । यह देवी तेजोमय व हस्त में कमलवाली एवं गले में हार से मनोहर दिखे। www.jainelibe
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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