SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धाणं सूत्र (भाग-३) इक्को वि नमुक्कारो) (अर्थ ) जिनवरो (केवलज्ञानी) में प्रधान वर्धमान स्वामी को (किया गया सामर्थ्ययोग की कक्षा का) एक भी नमस्कार संसारसमुद्र से पुरुष या स्त्री को तार देता है । इक्को वि नमुक्कारो जिणवर-वसहस्स वद्धमाणस्स संसारसागराओ, तारेइ नरं व नारिं वा ॥ (समझ-) चित्र के अनुसार दृष्टि सन्मुख प्रभु 'जिनवर वृषभ' याने प्रधान जिनवर रुप में दिखाई पड़े। यहां 'जिन' यानी राग-द्वेष का जय करनेवाले अवधिज्ञानी आदि, जिनवर' यानी इन में श्रेष्ठ केवलज्ञानी, इनमें 'वृषभ' यानी श्रेष्ठ प्रधान वीरप्रभु। वे प्रभु=प्रधान दिखें, यानी अष्ट प्रातिहार्य व नमनशील देवों से युक्त एवं नीचे सुवर्णकमल पर अन्य केवलज्ञानी महर्षि के सिर पर दिखें । प्रभु के पैर में दोनों ओर पुरुष साधु, स्त्री साध्वी नमस्कार करती हुई एवं उपर मोक्ष में जाते हुए दिखाई पड़े। प्रभु के प्रति सामर्थ्य-योग की कक्षा का एक भी नमस्कार उन्हें भवसागर से तैराता है। नमस्कार ३ प्रकार के, (१) इच्छायोग की कक्षा का, जिस में नमस्कार की मात्र इच्छा बलवान् है, किन्तु विधिविधान व अप्रमाद का ठीक पालन नहीं । (२) शास्त्रयोग की कक्षा का नमस्कार, इसमें चारित्रभाव के साथ तीव्र श्रद्धासंवेदनवश शास्त्रोक्त विधि-विधान का पालन है । (३) सामर्थ्ययोग की कक्षा का नमस्कार, इसमें क्षपकश्रेणि के लिए उल्लसित किये गए अपूर्व सामर्थ्य व ५ अपूर्वकरणों के रुप में भाव नमस्कार किया जाता है । इसके उत्तर काल में अवश्य वीतरागता व केवलज्ञान प्रगट होता है यही तैरना है, नमस्कार तैराता हैं । सात लाख सूत्रः सात लाख पृथ्वीका सात लाख अप्काय सात लाख तेउकाय सात लाख वाउकाय दस लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय दो लाख बेइंद्रिय, दो लाख तेइंद्रिय दो लाख चउरिंद्रिय, चार लाख देवता चार लाख नारकी चार लाख तिर्यंच पंचेन्द्रिय चौदह लाख मनुष्य, इस प्रकार चोराशी लाख जीवयोनियों में से मेरे जीव ने किसी जीव का जो हनन किया हो, हनन कराया हो, हनन करते हुए का अनुमोदन किया हो, वह सभी मन-वचन-काया सेमिच्छामि दुक्कडं । पहले प्राणातिपात (१८ पापस्थानक) सूत्र दसवां राग ग्यारहवाँ द्वेष बारहवाँ कलह तेरहवाँ अभ्याख्यान पहला प्राणातिपात दूसरा मृषावाद तीसरा अदत्तादान चौथा मैथून पांचवां परिग्रह छठा क्रोध सातवां मान आठवां माया नौवां लोभ | ४९ चौदहवाँ पैशुन्य पंद्रहवाँ रतिअरति सोलहवाँ परपरिवाद इन अठारह पाप स्थानकों में से मेरे जीव ने जो कोई पाप सेवन किया हो, सेवन कराया हो, सत्रहवां मायामृषावाद अठारहवाँ मिथ्यात्वशल्य सेवन करते हुए का अनुमोदन किया हो, वह सभी मन-वचन-काया से मिच्छा मि दुक्कडं । e Only (www.jainelibrary.org
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy