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________________ सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र (भाग-२) (वीर स्तुति) (अर्थ-) जो देवताओं के भी देव हैं, जिनको अंजलि जोड़े हुए देव नमस्कार करते हैं, इन्द्रों से पूजित उन महावीर स्वामी को मैं सिर झुका कर वन्दन करता हूं । जो देवाण वि देवो जं देवा पंजली नमसंति । तं देवदेव-महियं सिरसा वंदे महावीरं || (समझ-) यहां महावीर प्रभु को वन्दना करनी है। चित्र में दर्शित के अनुसार प्रत्येक गाथा पंक्ति का भाव सामने इस प्रकार दिखाई पड़े कि, (१) जो देवों के देव यानी पूज्य नेतारुप में हैं, उदाहरणार्थ जघन्यतः क्रोड देवताओं से परिवरित महावीर प्रभु विचर रहे है, हमें अपनी दायी ओर से प्रभु आ रहे दिखाई पड़े, व (२) बायी ओर से आकाश से उतर रहे देवताएँ अंजलि जोड नमस्कार कर रहे दिखाएँ, एवं (३) 'देव-देव' यानी इन्द्र प्रभु की दो बाजू चंवर ढाल रहे दिखाए जिससे प्रतीत हो कि प्रभु इन्द्र से महित-पूजित है । (४) ऐसे प्रभु को हम मस्तक नमाकर वंदना कर रहे हैं। देवसिय आलोउं सूत्र (अर्थ-) हे भगवन् आपकी इच्छा हो तो आदेश दें, मैं दिवस संबन्धी (मेरे अतिचार = दोषसमूह) को प्रकाशित करूं ? (गुरु'आलोएह' 'प्रकाशित कर' कहे, तब शिष्य) आपका आदेश जो मे देवसिओ (राइओ) अइयारो कओ. स्वीकारता हूं, मैं प्रकाशन करता हूं। मुझसे जो दैवसिक इच्छं आलोएमि । काइओ वाइओ माणसिओ (रात्रिक) अतिचार (समूह) किया गया । कायिक- वाचिक - मानसिक, उत्सूत्र- उन्मार्ग, अकल्प्य अकरणीय दुर्ध्यानरुप-दुश्चिंतनरुप इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसिअं (राइयं) आलोउं ? उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो-अकरणिज्जो दुज्झाओ-दुव्विचिंतिओ अणायारो अणिच्छिअव्वो असावगपाउग्गो नाणे- दंसणे-चरित्ताचरिते सु-सामाइए अनाचाररुप अनिच्छनीय श्रावक के लिये सर्वथा अनुचित. (ऐसे अतिचार) ज्ञान के विषय में, दर्शन के विषयमें, देशविरति के विषय में, श्रुत (मत्यादिज्ञान) के विषयमें, सामायिक (सम्यक्त्व सामायिक, चारित्र सामायिक) के विषय में.) (अतिचारों का यहां तक एक भाग, अब चारित्र सामा० अतिचारों का दूसरा भाग ) तिन्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचह मणुव्वयाणं तिण्हं गुणव्वयाणं चउन्हं सिक्खावयाणं ३ गुप्तियों का, ४ कषायों का, ५ अणुव्रतों का, ३ गुणव्रतों का, ४ शिक्षाव्रतोंका, बारसविहस्स सावगधम्मस्स जं खंडियं, जं विराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कड' (समझ-) इस सूत्र बोलते समय पद के अनुसार दिवस (या रात्रि आदि) में किये गए उस उस दोष को मन में याद करना । यहां दो भाग हैं- (१) 'जो मे'...से 'सुए-सामाइए' तक (२) 'तिण्ह गुत्तीणं' से ' जं विराहियं' तक । इन दोनों का सम्बन्ध 'तस्स...दुक्कडं' के साथ । इन दो में (१) 'जो मे...पाउग्गो' तक के अतिचार 'नाणे...सामाइए' ज्ञान-दर्शन- चारित्राचारित्र श्रुत-सामायिक प्रत्येक में कैसे कैसे प्रमाद हुआ, यह सोचना है । (२) 'तिण्ह०...धम्मस्स' ३ गुप्ति... श्रावकधर्म प्रत्येक की जो जो खंडना- विराधना हुई यह सोचें । अंत में तस्स मिच्छा मि दुक्कडं करे, उन दुष्कृत्यों की गर्हा करे । ४७ १२ प्रकार के श्रावक धर्मका, जो अंश खंडित हुआ, जो सर्वांश भग्न हुआ तत्संबन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । For Private & Personal Use Only
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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