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________________ सिद्धाणं बुद्धाणं (सिद्धस्तव) सूत्र (भाग-१) सिद्धाणं बुद्धाणं, (अर्थ) ८ कर्मों को जलानेवाले, सर्वज्ञ (केवलज्ञान पाये हुए), पारगयाणं परंपरगयाणं । संसार से पार गये हुए, गुणस्थानक क्रम की (या पूर्व सिद्धों की) परंपरा से पार गए, १४ राजलोक के अग्र भाग को प्राप्त, सर्व सिद्ध भगवंतों को मेरा हमेशा नमस्कार है । लोअग्ग-मुवगयाणं, नमो सया सव्वसिद्धाणं (समझ-) यहां चित्र के अनुसार सिद्ध बुद्ध आदि एकैक को नीचे से उपर तक क्रमशः दृष्टि सन्मुख करना है । 'सिद्ध' यानी सित (बद्ध ८ कर्मों को) जला देते हुए । 'बुद्ध' कैवल्य प्रकाश पाए हुए । 'पारगय' संसार सागर को पार कर गए । 'परंपरगय' १४ गुणस्थानक की क्रम परंपरा पहुंच चुके, एवं पूर्व सिद्धों की परंपरा में प्राप्त । 'लोअग्गमुवगय' लोकाग्रे विद्यमान सिद्धशिला के उपर पहुंच चुके । 'सव्वसिद्ध' अनंत सिद्ध भगवंत को मेरी हमेशा वंदना है । नाणंमि सूत्र (अविचार-आलोचन सूत्र) नाणंमि दंसणंमि अ, चरणंमि तवंमि तह य वीरियंमि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ || काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह य अनिन्हवणे । वंजण-अत्थ-तदुभए, अट्ठविहो नाणमायारो || निस्संकिय-निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्ल-पभावणे अट्ठ ।। पणिहाण जोगजुत्तो पंचहिं समिईहिं तिहिं गुत्तीहिं । एस चरितायारो, अट्ठविहो होइ नायव्वो ।। बारसविहंमि वि तवे, सब्मिन्तर बाहिरे कुसलदिट्ठे । अगिलाइ- अणाजीवी, नायव्वो सो तवायारो || अणसण-मूणोयरिआ, वित्तिसंखेवणं रसच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य, बज्झो तवो होइ ॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गो विअ, अब्मिंतरओ तवो होइ ॥ अणिगूहिअ बलवीरिओ परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुंजइ अ जहाथामं, नायव्वो वीरियायारो || (१) ज्ञान में, दर्शन में, चारित्र में, तप में तथा वीर्य में प्रवृत्ति यह आचार है। यों यह ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार व वीर्याचार इन पांच प्रकार का कहा है । (२) काल, विनय, बहुमान, उपधान (तप), (गुरु, ज्ञान व सिद्धान्त का) अपलाप नहीं करना, सूत्र, अर्थ व सूत्रार्थ (में प्रयत्न, यह) आठ प्रकार का ज्ञानाचार है । (३) (जैनमत में) निःशंकता, (अन्य मत की ) कांक्षा आकर्षण नहीं, (धर्म-क्रिया के फल सम्बन्ध में) मतिभ्रम नहीं, (मिथ्यात्वी की पूजादि देख) सत्य मार्ग से चलितता नहीं, (धर्मी के धर्म व गुण का) प्रोत्साहन - प्रशंसा, (धर्म में) स्थिरीकरण, (साधर्मिक पर) वात्सल्य, धर्म प्रभावना, ये ८ दर्शनाचार है । (४) उपयोग व संयम-योगों से युक्त चारित्राचार पांच समिति एवं तीन गुप्ति द्वारा ८ प्रकार का ज्ञातव्य है... (५) जिनोक्त १२ प्रकार के बाह्य आभ्यन्तर तप में भी खेदरहित व आजीविका के हेतु बिना प्रवृत्ति, यह तपाचार जानना चाहिए । (६) अनशन-ऊनोदरिका-वृत्तिसंक्षेप (खानपान-भोग के द्रव्यों में संकोच) रसत्याग, कायक्लेश व कायोत्सर्ग बाह्य तप हैं । (७) प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, वैसे ही स्वाध्याय, ध्यान व कायोत्सर्ग आभ्यन्तर तप हैं...। (८) बाह्य-आभ्यन्तर सामर्थ्य (कायबल-मनोबल) को न छिपाते हुए उपर्युक्त (ज्ञानाचारादि) में सावधान हो जो पराक्रम किया जाए व शक्य बल लगाया जाए यह वीर्याचार ज्ञातव्य है । ४५ nelibrary.o
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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