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________________ नमुत्थुणं सूत्र (शक्रस्तव) भाग-३ (७) अप्पडिहय-वर-नाणदंसणधराणं वियट्ट-छउमाणं (८) जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोह मुत्ताणं मोअगाणं (९) सव्वण्णूणं सव्वदरिसीणं सिव-मयल-मरुअ-मणंत मक्खयमव्वाबाह-मपुणरावित्ति सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपत्ताणं नमो जिणाणं जिअभयाण (अर्थ) अबाधित श्रेष्ठ (केवल) - ज्ञान दर्शन धारण करनेवाले, छद्म (४ घातीकर्म) नष्ट करनेवाले. राग-द्वेष को जीतनेवाले, जितानेवाले, अज्ञानसागर को तैरनेवाले, तैरानेवाले, पूर्णबोध पानेवाले, प्राप्त करानेवाले, मुक्त हुए, मुक्त करानेवाले. सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, उपद्रवरहित-स्थिर अरोग अनंत (ज्ञानवाले)- अक्षयपीडारहित-अपुनरावृत्ति सिद्धिगति नाम के स्थान को प्राप्त, भयों के विजेता जिनेश्वर भगवंतों को नमस्कार करता हूँ । समझ - (चित्र में) (७) 'अप्पडिहय०' प्रभु अबाधित केवल ज्ञान-दर्शन से समस्त त्रिकाल के समस्त विश्व को देखते हैं, एवं मोहनीय कर्म सहित समस्त घाती कर्म नष्ट होने से प्रभु निरावरण-वीतराग है, भक्त या शत्रु के प्रति रागद्वेष वाले नहीं, एवं ज्ञानावरणादिवाले नहीं । (८) 'जिणाणं जाव०' बोलते वक्त जिन-तीर्ण-बुद्ध-मुक्त इन चार क्रमिक अवस्था के चित्र सामने आवें, (१) 'जिन' माने प्रभु ध्यान में खड़े रह कर राग-द्वेष को जीतते दिखें । 'तीर्ण' में प्रभु गोदोहिका आसने ध्यानस्थ रह कर बाकी के ३ घाती कर्मों को तैर जाते व अज्ञान, निद्रा, अंतराय को हटाते दिखें । 'बुद्ध' में केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त कर समवसरण पर बैठें व 'मुक्त' में सिद्धशिला पर कर्ममुक्त हो स्थिर हुए दिखें । ये चार अवस्थाएं १४ गुणस्थानक की दृष्टि से क्रमशः १० वे के अंत में, १२ वे के अंत में, १३ वे में, व १४ वे के अन्त में होती है । अरिहंताणं पद में बहुबचन है इसलिए ऐसे जिन-तीर्ण आदि अनंत दिखें । साथ साथ 'जावयाणं' 'तारयाणं'... आदि पदों में भव्य जीवों को जिन-तीर्ण आदि बनाते हैं वैसा देखा जाए । tational चित्र में बाजू में उपमा बताई है-संसार सागर दिखाया है। इसमें फसा हुआ जीव पहले मोह-स्वरुप मगरमच्छ के मुँह से निर्ग्रन्थ चारित्र स्वरुप मुष्टिप्रहार करके बाहर नीकलता है, बाद में अज्ञान-निद्रा-अंतराय स्वरुप जल में से तैर जाता है, पीछे केवलज्ञान स्वरुप प्रकाशमय तट पर पहुँचता है, पश्चात् मोक्षस्वरुप इष्ट नगर में जा कर स्थिर होता है । (९) सव्वन्नूणं...मोक्ष में भी प्रभु सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं, एवं ऐसी सिद्धिगति नाम के स्थान को प्राप्त है जहां शिव अचल...आदि अर्थात् कोई अशिव उपद्रव नहीं, चलायमानता नहीं, रोग नहीं, क्षय-मृत्यु-नाश नहीं, कोई ज्ञेय का अन्त (सीमा) नहीं, कोई बाधा-पीड़ा नहीं, जहाँ से अब कभी संसार में पुनरावर्तन- पुनर्गमन नहीं ऐसे सिद्धिगति नाम के स्थान को प्राप्त । ऐसे एवं 'नमो जिणाणं'... भयों के विजेता जिनेश्वर भगवन्तो को नमस्कार करता हूँ । 'नमो जिणाणं जियभयाणं' बोलते समय पांच अंगों को भूमि पर एक या तीन बार लगाना ध्यान में रहे। Qonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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