SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पभवो विण्हुकुमारो, अद्दकुमारो दढप्पहारी अ | सिज्जंस कूरगडू अ, सिज्जंभव मेहकुमारो अ ||६|| ४६.प्रभवस्वामी: जंबूस्वामी के यहाँ ५०० चोरों के साथ चोरी करने गये । पति-पत्नी के बीच वैराग्य प्रेरक संवाद सुनकर ५०० चोरों के साथ दीक्षा ली । जंबुस्वामी के बाद शासन को संभालने वाले पूज्यश्री चौदपूर्व के ज्ञाता थे । जैनशासन की धुरा को सौंपने के लिए श्रमण तथा श्रमणोपासक संघमें लायक व्यक्तित्व न दिखने से शय्यंभव विप्र को प्रतिबोध देकर चारित्र दिया व शासन का नायक बनाया । ४७.विष्णकुमार : पद्मोत्तर राजा व ज्वालादेवी के कुलदीपक, महापद्म चक्रवर्ती के भाई । दीक्षा लेकर कठोर तप तपकर अनेक लब्धियों के स्वामी बने । शासन द्वेषी नमुचिने श्रमणसंघ को षट्खंड की सीमा छोड़कर जाने का कहा तब विष्णुमुनिने पधारकर नमुचि को बहुत समझाया पर वह नहीं माना तब आखिरमें उसके पाससे तीन कदम भूमि मांगी । एक लाख योजन का विराट उत्तर वैक्रिय शरीर बनाया । एक कदम समुद्र के पूर्वतीर पर और दूसरा कदम समुद्र के पश्चिम तीर पर रखा व 'तीसरा कहाँ रखं?' यह कहकर तीसरा नमुचि के मस्तक पर रखा व श्री संघ को उपद्रवमुक्त बनाया । आलोचना से शुद्ध बनकर उत्तम चारित्र पालकर अंतमें मोक्षमें गये । ४८. आर्द्रकुमार : आर्द्रक नामक अनार्य देश के राजकुमार | पिता आर्द्रक व श्रेणिकराजा की मैत्री को दृढ बनाने हेतु अभयकुमार के साथ मित्रता बढ़ाई । लघुकर्मी जानकर अभयकुमारने रत्नमय जिनप्रतिमा भेजी । प्रभुदर्शन से जातिस्मरण ज्ञान हुआ । आर्यदेश में आकर चारित्र लिया । सालों तक चारित्र का पालन किया । बादमें भोगवली कर्म उदय में आये और संसारवास स्वीकारना पडा । पुत्रस्नेह के कारण अन्य १२ वर्ष संसार में रहकर वापिस दीक्षा ली । अनेक आत्माओं को प्रतिबोधित कर आत्मकल्याण किया । ४९.दटप्रहारी: यज्ञदत्त ब्राह्मण के पुत्र | कुसंगसे बिगडकर प्रसिद्ध चोर बने । एकबार चोरी करते विप्र, गाय, सगर्भा स्त्री याने स्त्री व गर्भस्थ बालक ऐसे कुल चार की महाहत्या की । पश्चात् हृदय द्रवित बना व संयम ग्रहण किया। उसके बाद जहाँ तक पूर्व पाप की स्मृति हो वहाँ तक कायोत्सर्ग करने का अभिग्रह करके हत्यावाले गाँव के पास ध्यानमग्न बने । वहाँ लोगों ने इन पर पत्थर, कूडा डालकर असह्य कठोर शब्द कहे परंतु ये ध्यान से किञ्चित् भी विचलित न हुए । सारे उपसर्ग समताभावसे सहन करके छ मास के अंत में केवलज्ञान प्राप्त किया । ५०. श्रेयासकुमार : बाहुबली के पौत्र व सोमयशा राजा के पुत्र | श्री आदिनाथ प्रभु को वार्षिक तप पश्चात् इक्षुरस से पारणा करवाया । आत्मसाधना करके सिद्धि पद पाये । ५१.कूरगडुमुनि : धनदत्त श्रेष्ठि के पुत्र | धर्मघोषसूरि के पास छोटी उम्रमें बालदीक्षित बने । अद्भुत क्षमागुण किंतु तपश्चर्या बिल्कुल कर नहीं सकते थे। एक बार पर्व के दिन प्रातः कालमें घड़ा भरकर भात लेकर आये व साथ में रहे तपस्वी चार मुनिओं को दिखाने गये । गुणरत्नों से भृत कूरगडु मुनि की देवी भी सेवा कर रही थी अतः ईर्ष्या व द्वेषभाव से भरे चारों मुनिवरों ने बलगम (कफ) पात्रमें डाल दिया । कूरगडुमुनिने अद्भुत क्षमा रखी व स्वनिंदा करते करते केवलज्ञान प्राप्त किया । ५२.शव्यभवसूरि : पूर्वावस्थामें कर्मकांडी ब्राह्मण थे, किंतु उनकी पात्रता देखकर प्रभवस्वामीने दो साधु भेजकर प्रतिबोध देकर चारित्र दिया । समस्त जैनशासन का भार इनको सोंपा | बालपुत्र मनक चारित्र मार्ग पर आया तब उसका छ माह जितना अल्पायु जानकर सिद्धांतोमें से सार संग्रह निकालकर दशवैकालिक सूत्र की रचना की। ५३. मेधकुमार : श्रेणिक राजा की धारिणी राणी के पुत्र । ८ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया । फिर भी प्रभुवीर की देशना सुनकर प्रतिबोध पाकर चारित्र ग्रहण किया । नवदीक्षित मुनि का संथारा अंतिम और द्वार के समीप आया । रात्रिमें साधुओं की आवन-जावन में धूल उडने से निद्रा न आयी । अतः चारित्र नहीं पाल सकूँगा ऐसा समझकर रजोहरण प्रभु को वापस देने का विचार किया । प्रातःकालमें प्रभुने सामने से बुलाया व रात्रिमें किया हुआ दुर्ध्यान बताया । पूर्व के हाथी के भवमें खरगोश को बचाने के लिए किस प्रकार कष्ट सहे थे वह बताया । प्रतिबोधित होकर आँख व पाँव को छोडकर शरीर के किसी भी अवयवों का उपचार नहीं कराउंगा ऐसी कठोर प्रतिज्ञा ग्रहण करके निर्मल चारित्र पालनकर स्वर्गगामी बने । एमाइ महासत्ता, दितु सुहं गुण-गुणेहिं संजुत्ता ।। जेसिं नामग्गहणे, पावप्पबंधा विलयं जंति ॥७॥ जिनका नाम लेने से पापके दृढबंध नष्ट हो जाते हैं ऐसे गुणके समूह से युक्त उपरोक्त और उनके जैसे महासात्विक पुण्यात्माओं सुख प्रदान करें। ९७ www.jainelibrary
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy