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________________ जय वीयराय जगगुरु होउ ममं तुह प्पभावओ भयवं ! भवनिव्वेओ मग्गाणुसारिआ इट्ठफल सिद्धि लोगविरुद्धच्चाओ गुरुजणपूआ परत्थकरणं च सुहगुरुजोगो तव्वयण-सेवणा आभवं अखंडा www.dicom Jain Education International शब्दार्थ जय हो (आपकी मेरे हृदय में) - हे वीतराग - www - जगद्गुरु ! - हो - मुझे - - प्रभाव से - हे भगवन् ! भव- वैराग्य - मोक्ष मार्ग की अनुसारिता, तत्त्वानुसारिता -- अपने ईप्सित कार्य की सिद्धि लोकनिंद्य प्रवृत्ति का त्याग, (लोगों को संक्लेश हो वैसी प्रवृत्ति का त्यांग) गुरुजन,- धर्मगुरु, विद्यागुरु, व मां-बाप आदि बड़ों की सेवा - आपके - तथा परार्थ परोपकार ( = पर- सेवा) करण चारित्रसंपत्र गुरु का योग - गुरु-वचन की उपासना (उनके आदेशानुसार व्यवहार - वर्तन) - संसारभ्रमण पर्यन्त अथवा इस जन्मान्त तक अखंड रूप से हो --- ८६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003232
Book TitleAradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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