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________________ हेतु . नोकषाय हास्यादि तिनके बंध हेतु यह है, प्रथम हास्य हांसी करे, भांड कुचेष्टा करे, बहुत बोलेतो हास्य मोहनीय कर्म बांधे १ देश देखनेके रससें, विचित्र क्रीडाके रससे, अति वाचाल होने से कामण मोहन टूणा वगेरे करे, कुतुहल करे तो रति मोहनीय कर्म बांधे २. राज्य भेद करे, नवीन राजा स्थापन करे, परस्पर झडाइ करावे, दूसरायोंकों अरति उच्चाट उत्पन्न करे, अशुभ काम करने कराने में उत्साह करे, और शुभ कामके उत्साहकों भांजे, निष्कारण आर्तध्यान करे तो अरति मोहनीय कर्म बांधे ३. परजीवांकों त्रास देवे तो, निर्दय परिणामी भय मोहनीय कर्म बांधे ४. परकों शोक चिंता संताप उपजावे, तपावे तो शोक मोहनीय कर्म बांधे ५. धर्मी साधु जनोकी निंदा करे, साधुका मलमलीन गात्र देखि निंदा करे तो जुगुप्सा मोहनीय कर्म बांधे ६. शब्द रूप, रस, गंध, स्पर्शरूप, मनगती विषयमें अत्यंताशक्त होवे, दूसरे की इर्षा , करे, माया मृषा सेवे, कुटिल परिणामी होवे, पर स्त्रीसें भोग करे तो जीव स्त्रीवेद मोहनीय कर्म बांधे ७. सरल होवे, अपनी स्त्रीसें उपरांत संतोषी होवे, इर्षा रहित मंद कषायवाला जीव पुरुषवेद बांधे ८. तीव्र कषायवाला, दर्शनी दूसरे मतवालोंका शील अंग करे, तीव्र विषयी होवे, पशुकी घात करे, मिथ्याद्रष्टि जीव नपुंसकवेद बांधे ९. संयमीके दूषण दिखावे, असाधुके गुण बोले, कषायकी उदीरणा करता हआ जीव चारित्र मोहनीय कर्म समुच्चय बांधे. इति मोहनीय कर्म बंध हेतु. यह मोहनीय कर्म मदिरेके नशेकी तरें अपने स्वरूपसें भ्रष्ट कर देता है. इति मोहनीय कर्मका स्वरूप संक्षेप मात्रसें पुरा हुआ ४. अथ पांचमा आयुकर्म , तिसकी चार प्रकृति जिनके उदयसें नरक १ तिर्यंच २ मनुष्य ३ देव ४ भव में बैंचा हआ जीव जावे है, जैसें चमकपाषाण लोहकों आकर्षण करता है, तिसका नाम आयुकर्म . नरकायु १ तिर्यंचायु २ मनुष्यायु ३ देवायु ४ प्रथम नरकायुके बंध हेतु कहते है. महारंभ चक्रवर्ती प्रमुखकी ऋद्धि भोगने में महामूर्ती परिग्रह सहित , व्रत रहित अनंतानुबंधी कषायोदयवान् पंचेंद्रिय जीवकी हिंसा निशंक होकर करे, मदिरा पीवे , मांस खावे, चौरी करे, जूया खेले, परस्त्री और वेस्या गमन करे, शिकार मारे कृतघ्नी होवे, विश्वासघाती, मित्र द्रोही, उत्सूत्र प्ररूपे मिथ्यामतकी महिमा बढावे, कृष्ण, नील, कापोत लेश्यासें अशुभ परिणामवाला जीव नरकाय 100000000000000000000000GOOGUAGEAGOOGC . GAGAGA6A6A6AGDAGOGAGHAGAGAR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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