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________________ तो फिर ब्राह्मणोके मतके ज्ञानसें जैन मत रचा क्योंकर सिद्ध होवे, बल्कि यहतो सिद्धभी हो जावेके सर्वं मतोमें जो जो सूक्त वचन रचना है रे सर्व जैनके द्वादशांग समुद्रकेही बिंदु सर्व मतोमें गये हुए है. विक्रमादित्य राजेके पुरोहितका पुत्र मुकंदनामा चार वेदादि चौदह विद्याका पारगामी तिसने वृद्धवादी जैनाचार्य के पास दीक्षा लीनी. गुरुने कुमुदचंद नाम दीना और आचार्यपद मिलने से तिनका नाम सिद्धसेन दिवाकर प्रसिद्ध हुआ, जिनका नाम कवि कालीदासने अपने रचे ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथमें विक्रमादित्यकी सभाके पंक्तितोके नाम लेतां श्रुतसेन बत्तीसी ग्रंथमें ऐसा लिखा है, सुनिश्चितं नः परतंत्र युक्तिषु ॥ स्फुरंतिया कश्चिन्सुक्तिसंपदः ॥ तवैवतां पूर्वमहार्णवोच्छता । जगत्प्रमाणं जिन वाक्य विप्रुष ||१|| उदधाविव सर्व संघव || समुद्दीरणा त्वयि नाथ द्रष्टयः ।। नचतासु भवान्प्रदश्यते ॥ प्रविभक्त सरित्स्विवोच्दधिः ||१|| प्रथम श्लोकका भावार्थ उपर लिख आए है, दूसरे श्लोकका भावार्थ यह है, कि समुद्रमें सर्व नदीयां समा सकती है, परंतु समुद्र किसीभी एक नदीमें नही समा सक्ता है, तैसे सर्व मत नदीयां समान है, वैतो सर्व स्याद्वाद समुद्ररूप तेरे मतमे समा सकते है, परंतु तेरा स्याद्वाद समुद्ररूप मत किसी मतमेंभी संपूर्ण नही समा सकता है, ऐसे ही श्री हरिभद्रसूरिजी जो जातिके ब्राह्मण और चित्रकूटके राजाके पुरोहित थे और वेद वेदांगादि चौदह विद्याके पारगामी थे, तिनोनें जैनकी दीक्षा लेके १४४४ ग्रंथ रचे है, तिनोनेभी उपदेशपद षोडशकादि प्रकरणोमें सिद्धसेन दिवाकरकी तरेही लिखा है तथा श्री जिनधर्मी हुआ पीछे जाना है, जिसने शैवादि सकल दर्शन और वेदादि सर्व मतोंके शास्त्र ऐसे पंकित धनपालने जोके भोजराजाकी सभामें मुख्य पंकित था, तिसने श्री ऋषभदेवकी स्तुतिमें कहा है, पावंति जसं असमंजसावि, वयणेहिं जेहि पर समया, तुह समय महो अहिणो, ते मंदाविंदु निस्संदा ||१|| अस्यार्थः ।। जैनमतके विना अन्य मतके असमंजस वचनरूप शास्त्र जो जगमें यशको पावें है जैसे वचनोसें वे सर्व वचन तेरे स्याद्वादरूप महोदधि के अमंद विह उसके गए हुए है, इत्यादि सैकडो चार वेद वेदांगादिके पाठीयोनें जैनमतमे दीक्षा लीनी है, क्या उन सर्व पंक्तितोकों बौद्धायनादि शास्त्र पठते हुआंको नही मालुम पडा होगा के बौद्धायनादि शास्त्र जैनमतके वचनोसें रचे गये है, वा जैन मत बौद्धायनादि शास्त्रोंसें रचा गया है, जेकर कोई यह अनुमान शके श्री महावीरजीसें बौद्धायनादि शास्त्र पहिले रचे गए है, इस वास्ते जैनमत पीठेसे ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only sver www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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