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________________ मतीका प्रतिबोधक केशी गणधरका और देव विमानादिकका कथन है. २ जीवाभीगममें जीव अजीवका विस्तारमें चमत्कारी कथन करा है. ३ पन्नवणामें ३६ बत्तीस पदमे बत्तीस वस्तुका बहुत विस्तारमें कथन है. ४ जंबुद्वीप पन्नत्तिमें जंबूद्वीपादिका कथन है. ५ चंद्रप्रज्ञप्ति , सूर्यप्रज्ञप्तिमें ज्योतिष चक्रके स्वरुपका कथन है, ६, ७ निरावलिकामें कितनेक नरक स्वर्ग जाने वाले जीव और राजायोंकी लडाइ आदिकका कथन है.८।९।१०।११||१२ आवश्यकमें चमत्कारी अति सूक्ष्म पदार्थ नय निक्षेप ज्ञान इतिहा सादिका कथन है, १ दशवैकालिकमें साधुके आचारका कथन है २ पिंडनियुक्तिमें साधुके शुद्धाहारादिकके स्वरूपका कथन है ३ उत्तराध्ययनमेंतो बत्तीस अध्ययनोमें विचित्र प्रकारका कथन करा है ४ छहों छेद ग्रंथोमें पद विभाग समाचारी प्रायश्चित्त आदिका कथन है ६ नंदीमे ५ पांच ज्ञानका कथन करा है. १ अनुयोगद्वारमें सामायिकके उपर चार अनुयोगद्वारमें सामायिकके उपर चार अनुयोगद्वारोंसें व्याख्या करी है २ चउसरण में चारसरणेका अधिकार है १, रोगीके प्रत्याख्यानकी विधी २, अनशन करणेकी विधि ३, बडे प्रत्पाख्यानके करणेका स्वरूप ४, गर्भादिका स्वरूप ५, चंद्र बेध्यका स्वरूप ६, ज्योतिषका कथन ७, मरणके समय समाधिकी रीतिका कथन ८,इंद्रोंके स्वरूपका कथन ९, गच्छाचारमें गच्छका स्वरूप, १० और संस्थारपइन्नेमें संथारेकी महिमाका कथनहै, यह संक्षेपसें पैंतालीस आगममें जो कुछ कथन करा है, तिसका स्वरूप कहा, परंतु यह नही समझ लेनाके जैन मतमें इतनेही शास्त्र प्रमाणिक है, अन्य नही, क्योंकि उमास्वाति आचार्यके रचे हुए, ५०० प्रकरण है, और श्री महावीर भगवंतका शिष्य श्री धर्मदासगणि क्षमाश्रमणजीकी रची हुइ उपदेशमाला तथा श्री हरिभद्र सूरिजीके रचे १४४४ चौदहसौ चौतालीस शास्त्र इत्यादि प्रमाणिक पूर्वधरादि आचार्योके कर्मप्रकृति शतकादि हजारोही शास्त्र विद्यमान है, वे सर्व प्रमाणिक आगम तुल्य है, राजा शिवप्रसादजीने अपने बनाए इतिहास तिमर नासकमें लिखा है. बुलरसाहिबने १५०००० देढ लाख जैन मतके पुस्तकोंका पता लगाया है, और यहभी मनमें कुविकल्प न करना के यह शास्त्र गणधरोंके कथन करे हुए है, इस वास्ते सच्चे है, अन्य सच्चे नही, क्योंके सुधर्मस्वामीने जैसे अंग रचेथे वैसेतो नही रहे है. संप्रति कालके अंगादि सर्व शास्त्र स्कंधिलादि आचार्योने वांचना रूप सिद्धांत वांथे है, इस वास्ते पूर्वोक्त आचार्योके रचे प्रकरण सत्य करके मानने, यही कल्याणका हेतु है. GAGEDGOAGORGOAGOAGBAGAG00000GOAGORG FoodzabadbAGHAGGAGEM000GGAGGAGDOGGAGO Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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