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________________ मनुष्य करतां बहुत सुख है, अंत मे सोभी अनित्यहै, जैसें जीव कर्मोसें •बंधाता है और जैसे जीव कर्म से छुटके निर्वाण पदकों प्राप्त होता है, और षट्कायके जीवां का स्वरुप ऐसा है पीछे साधुका धर्म और श्रावक के धर्मका यह स्वरूप है इत्यादि धर्म देशना श्री महावीर भगवंते सर्वजातिके मनुष्यादिकों क कथन करीथी । प्र.६६. साधुके धर्मका थोडेसे में स्वरुप कह दिखलानुं. उ. पांच महाव्रत और रात्रि ओजनका त्याग यह छ वस्तु धारण करे. दश प्रकारका यति धर्म और सत्तरेंभेदे संयम पालन करे, ४२ बैतालीस दोष रहित भिक्षा ग्रहण करे, दशविध चक्रवाल समाचारी पाले. प्र.६७. श्रावक धर्मका थोडे से में स्वरूप कह दिखलानुं. उ. त्रस जीवकी हिंसाका त्याग १ बडे जुठका त्याग, अर्थात् जिसके बोलने से राजसें दंड होवे, और जगत में जुठ बोलने वाला प्रसिद्ध होवे. ऐसे चोरीमें भी जानना २ बडी चोरीका त्याग ३ परस्त्रीका त्याग ४ परिग्रह का प्रमाण ५ छहें दिशामें जानेका प्रमाण करे, आगे परिभोगका प्रमाण करे, बावीस अभक्ष्य न खाये, योग्य वस्तुका ओर बत्तीस अनंत कायका त्याग करे. और पंदर १५ बुरे वाणिज व्यापार करनेका त्याग करे. बिनाप्रयोजन पाप न करे. सामायिक करे, देशावकाशिक करे, पोषध करे, दान देवे, त्रिकाल देव पूजन करे. प्र. ६८. साधु श्रावकका धर्म किस वास्ते मनुष्योंको करना चाहिये । उ. जन्म मरणादि संसार भ्रमण रूप दुखसें छूटने वास्ते साधु और श्रावक का पूर्वोक्त धर्म करना चाहिये । प्र.६९. श्री भगवंत महावीरजीने जो धर्म कथन करा था. सो धर्म श्री महावीरजीनें अपने हाथों से किसी पुस्तकमें लिखा था वा नही. उ. नही लिखा था । प्र.७०. श्री महावीर भगवंतका कथन करा हुआ सर्व उपदेश भगवंतकी रूबरू किसी दूसरे पुरुषनें लिखा था । उ. दूसरे किसी पुरुषने सर्व नही लिखा था । प्र. ७१. क्या लिखने लोक नही जानते थे, इस वास्ते नही लिखा वा २२ Jain Education International र For Private & Personal Use Only ०००००० www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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