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________________ क्योंकर सत्य होवेगा, इस वास्ते इन शिला लेखोंसें तुमारा मत पीछे सें निकला सिद्ध होता है, इस वास्ते श्री विरात् ६०९ वर्ष पीछे दिगंबर मतोत्पत्ति. इस वाक्यसें श्वेतांबरोका कथन सत्य मालुम होता है, और अधुनक मतवाले लुंपक, ढुंढक, तेरापंथी वगेरे मतोंवालों से भी हम मित्रतासें विनती करते है के, तुमभी जरा इन लेखों को बांचके बिचार करोके श्री महावीरजीकी प्रतिमाके उपर जो राजा वासुदेवका संवत् ९८ अठानवेका लिखा हुआ है, और एक श्री महावीरजीकी प्रतिमाकी पलांती उपर राजा विक्रमसे पहिले हो गए किसी राजेका संवत् विसका लिखा हुआ है, और इन प्रतिमाके बनवनेवाले श्रावक श्राविकांके नाम लिखे हुए है, और दश पूर्वधारी आचार्यों के समय के आचार्यो के नाम लखे हुए है || जिनोंने इन प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करी है, तो फेर तुम लोक शास्त्रां के अर्थ तो जिनप्रतिमाके अधिकार में स्वकल्पनासें जूठे करके जिन प्रतिमाकी उत्स्थापना करते हो, परंतु यह शिला लेख तो तुमारे सें कदापि जते नही कहे जाएंगे, क्योंके इन शिला लेखोंकों सर्व यूरोपीयन अंग्रेज सर्व विद्वानाने सत्य करके माने है, इस वास्ते मनुष्य जन्म फेर पाना हर्लभ है, और थोडे दिनकी जिंदगी है, इस वास्ते पक्षपात बोझके तुम सच्चा धर्म तप गबादि गबोंका मानो, और स्वकपोल कल्पित बावीस २२ टोलेका पंथ और तेरापंथीयोंका मत छोड देवो, यह हित शिक्षा में आपको अपने प्रियबंधव मानके लिखी है ।। | प्र.१५८ हमारे सुनने में ऐसा आयाहै कि जैनमतमें जो प्रमाण अंगुल (भरत चक्रीका अंगुल) सो उत्सेधांगुल (महावीर स्वामिका आधाअंगुल) सें चारसौ गुणा अधिक है, इस वास्ते उत्सेधांगलके योजनसें प्रमाणांगलका योजन चारसौ गुणा अधिकहै, ऐसे प्रमाण योजनसें ऋषभदेवकी विनीता नगरी लांबीबारां योजन और चौडीनव योजन प्रमाणथी जब इन योजनाके उत्सेद्धांगलके प्रमाणसें कोस करीये, तब १४४०० चौद हजार चारसौ कोस विनीता चौडी और १९२०० कोस लंबी सिद्ध होती है, जब एक नगरी विनिता इतनी बडी सिद्ध हुइ, तबतो अमेरिका, अफरीका, रूस, चीन, हिंदुस्थान प्रमुख सर्व देशों में एकही नगरी हुइ, और कितनेक तो चारसौ गुणेसेंभी संतोष नही पाते है, तो एक हजार गुणा उत्सेध योजनसे प्रमाण योजन मानते है, तब तो विनीता ३६००० हजार कोस चौकी और ४८००० NGOAGDAGDACOAGOAGBAGBAAGHAGORGAGARL PAGAGAGAGAGAGAGDACONGRAGEDGEAGER Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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